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________________ ५७७ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर कर, परिचय हो जाने पर भी आहारादि में अप्रतिबद्ध हो कर किसी पर भी द्वेषभाव न रख कर, मन में अदैन्य, अहीनभाव, अविषाद, आदि की शुद्ध भावना ही लेकर जाएगा । वह बिना थके शुद्ध भिक्षा की खोज में घूमेगा, किन्तु न मिलने पर अपने भाग्य, व्यक्ति या गांव को नहीं कोसेगा । वह अप्राप्त के लिए उद्यम और प्राप्त पर संयम करेगा और विनय, निःस्पृहता, अनासक्ति, क्षमा, त्याग, वैराग्य आदि अपने सहज गुणों से ही सबको प्रभावित करेगा, अपने मन वचन और काया को सतत स्वाध्याय, ध्यान आदि उत्तम धर्माचरण में लगाए रखेगा । frer में शुद्धता का उपदेश किसने और क्यों दिया ? - साधु की भिक्षाविधि में शुद्धता और निर्दोषता के लिए शास्त्रकार ने जो निरूपण किया है, वह सारा का सारा उपदेशात्मक और अनुशासनात्मक प्रतीत होता है । इसे पढ़ने से ऐसा मालूम होता है, मानो एक पिता अपने अर्धविदग्ध या मंदमति पुत्र को एक ही को जोर दे कर बार-बार कह रहा हो । सचमुच, पुत्र के प्रति असीम वात्सल्य ही पिता से बार-बार उसी बात को कहलाता है, इसमें पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता । भिक्षाविधि सम्बन्धी पूर्वोक्त प्रवचन भी अपने ज्येष्ठ पुत्रों-मुनियों के प्रति विश्ववत्सल, परमपिता भगवान् महावीर ने सम्यक् प्रकार से दिया है, और वह दिया है सम्पूर्ण विश्व के जीवों की रक्षारूप दया से प्रेरित हो कर । अपने ज्येष्ठ पुत्रों के लिए उनका भिक्षाविधि का यह उपदेश आत्महितकर है, भविष्य में कल्याणकर है, जन्म-जन्मान्तर को सफल बनाने वाला है, यह न्याययुक्त है, लागलपेट वाला नहीं, अपितु शुद्ध है, मोक्षप्राप्ति के लिए भी आसान है, श्रेष्ठ है, समस्त दु:खों और पापों को शान्त करने वाला है। सचमुच साधुवर्ग के लिए निर्दोष भिक्षावृत्ति का आविष्कार करके तीर्थंकरों ने साधु की जीवनयात्रा सुखद, सरल, भारहीन और तेजस्वी बना दी है । अहिंसापालन के लिए पांच भावनाएँ शास्त्रकार ने पूर्व सूत्रपाठ में पूर्णरूप से अहिंसा के पालन के लिए भिक्षाविधि तथा भिक्षा में निर्दोषता की सावधानी के लिए उपदेश दिया है, अब अहिंसा के पूर्णतः पालन के लिए रुचि, जिज्ञासा, श्रद्धा, उत्साह, धृति, प्रेरणा, दृढ़ता और तीव्रता की जननी के तुल्य जिन-जिन मुख्य पांच भावनाओं की साधक के जीवन में आवश्यकता है, उनका निर्देश वे निम्नोक्त सूत्रपाठ द्वारा करते हैं मूलपाठ तस्स इमा पंच भावणातो पढमस्स वयस्स होंति - पाणाति ३७
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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