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________________ ५७६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रासुक आहार- प्रासुक आहार का अर्थ है-ऐसा आहार पानी, जो चेतन. रहित हो । यद्यपि साधु को सचित्त वस्तु को अचित्त स्वयं करना नहीं है और न प्रेरणा दे कर कराना है । परन्तु जिस समय वह भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में जाय उस समय जो आहारादि पदार्थ उसे लेना है, वह अचित्त (प्रासुक) होना चाहिए ; फिर भले ही उस पदार्थ के जीव स्वतः या किसी कारण से च्युत-पृथक् हो गए हों, अथवा उसमें से जीव इस प्रकार पृथक् हो गए हों कि भविष्य में पैदा न हो सकें, अथवा दाता ने साधु के उद्देश्य से नहीं,. अपितु. अपने लिए स्वत: प्रेरणा से उस वस्तु में से जीव पृथक् करवा रखे हों। इसी आशय को निम्नोक्त पंक्ति से शास्त्रकार ने व्यक्त किया है-'ववगयचुयचावियचत्तदेह च फासुयं ।' ____ साधु की निःस्पृही भिक्षावृत्ति भिक्ष क की दीनवत्ति नहीं-साधु का जीवन सर्वोच्च है । चक्रवर्ती भी अपनी सर्वस्व विभूति और धनसंपत्ति को छोड़ कर इस मुनिपद को स्वीकार करता है । अतः पंचमहाव्रती साधु की भिक्षा बिलकुल निःस्पृहभिक्षा है । साथ ही स्वाभिमानपूर्वक एवं समभाव से ग्रहण की जाने के कारण वह अमीरी भिक्षा भी है । उसे न तो भिक्षा के समय गृहस्थों में घरों में बैठ कर कथाकहानियों, चुटकलों आदि से मनोरंजन करके उनसे भेंट-दक्षिणा के रूप में आहारादि लेना है, न चिकित्सा, मंत्र, तंत्र,यंत्र,जड़ीबूटी, औषध आदि के प्रयोगों से उनके सांसारिक प्रयोजनों को सिद्ध करके उनकी दानवृत्ति को उभारना है, न शरीरचिह्नों, उत्पातों, स्वप्नों, ज्योतिषान्तर्गत ग्रहों, एवं विविध निमित्तों का फलाफल बता कर या जादूटोने आदि के चमत्कार बता कर गृहस्थों से आहारादि की सेवा लेनी है ; न दम्भ, रखवाली एवं शासन का काम करके गृहस्थों से भिक्षा लेनी है ; न गृहस्थों की स्तुति, सम्मान या पूजा करके आहारादि लेना है। अपनी भिक्षा के लिए साधु किसी गहस्थ की जातिगत निन्दा करके, व्यक्तिगत निन्दा करके या लोगों के सामने उसके दोष प्रगट करके उसकी दानवृत्ति को उकसाएगा नहीं । वह किसी को डरा-धमका कर, फटकार कर या मारपीट कर भिक्षा लेने की तो बात ही नहीं सोच सकता । और न ही वह अपने गुरु, सम्प्रदाय या जाति आदि का बड़प्पन जता कर या फटेटूटे कपड़े आदि पहन कर अपनी दरिद्रता बता कर या भिखारियों की तरह गिड़गिड़ा कर या गृहस्थ की चापलूसी या खुशामद करके किसी गृहस्थ को भिक्षा देने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार चट्टान की तरह अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ साधु भिक्षा लेने की नीयत से दाता के प्रति कृत्रिम मैत्रीभाव प्रदर्शित करके, या प्रार्थना करके अथवा नौकर की तरह गृहस्थ की सेवा करके कदापि भिक्षाग्रहण नहीं कर सकता। वह गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए जायगा तब बिलकुल अपरिचित-सा बन
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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