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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५६७ साधु मन-वचन-काया से न तो किसी जीव को स्वयं पीड़ा पहुंचाते हैं, न किसी जीव को पीड़ा पहुंचाने की दूसरों को प्रेरणा करते हैं,और न ही किसी जीव को पीड़ा पहुंचाने की अनुमोदना करते हैं । इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि द्रव्य और भाव से अहिंसा का पूर्णरूप से पालन करने की दृष्टि से साधुओं को आहार-पानी या धर्मपालन के लिए शरीरधारणार्थ अन्य उपयोगी वस्तु शुद्धरूप से भिक्षाविधि के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। उन्हें यह अन्वेषणा-गवेषणा करनी चाहिए कि भिक्षा के रूप में प्राप्त होने वाली इन चीजों के पीछे कहीं हमारे निमित्त से किसी प्रकार की हिंसा तो नहीं हुई है ? क्योंकि गृहस्थ लोगों द्वारा श्रद्धाभक्तिवश साधु को भोजनादि द्रव्य देने के हेतु पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीवों की विराधना संभव है, कहीं द्वीन्द्रिय आदि त्रसजीवों को भी पीड़ा पहुंचनी संभव है । इसलिए साधु गवेषणा करके निर्दोष भिक्षा ही ग्रहण करे । निर्दोष भिक्षा कैसी होती है ?, इसके लिए शास्त्रकार स्वयं कहते हैं - 'अकतमकारियमणाहूयमणुद्दिळं अकीयकडं नवहि य कोडिहिं सुपरिसुद्ध।' इसका आशय यह है कि भिक्षाप्राप्त भोजनादि पदार्थ भिक्षु ने स्वयं न बनाया हो, न साधु के द्वारा दूसरों को प्रेरणा दे कर बनवाया हो, न वह पदार्थ साधु को पहले आमंत्रण दे कर तैयार किया गया हो, और न ही किसी साधु को लक्ष्य करके बनाया गया हो । इसी प्रकार वह भोजनादि पदार्थ साधु के लिए ही खरीद कर तैयार किया हुआ भी न हो । सारांश यह है कि जो भोजनादि पदार्थ साधु को भिक्षा के रूप में ग्रहण करना है, वह निम्नोक्त नवकोटि से विशुद्ध होना चाहिए-१ साधु न स्वयं जीव का घात करते हैं, २ न दूसरों से घात करवाते हैं, और ३ न घात करने वाले का अनुमोदन करते हैं ; ४ वे नं स्वयं पकाते हैं, ५ न दूसरों से पकवाते हैं, और ६ न पकाने वाले की अनुमोदना करते हैं, ७ वे न स्वयं खरीदते हैं, ८ न दूसरों से खरीदवाते हैं, और ६ न ही खरीदने वाले की अनुमोदना करते हैं। क्योंकि वे मन,वचन और काया से कृत, कारित और अनुमोदन के रूप में हिंसा के त्यागी होते हैं । भिक्षा के रूप में प्राप्त वह. पदार्थ उपर्युक्त नौ कोटियों में से किसी भी कोटि द्वारा दूषित न हो, तभी नवकोटिपरिशुद्ध आहार कहलाता है। इस तरह से नवकोटिपरिशुद्ध भिक्षा प्राप्त पदार्थ ग्रहण करने का ध्यान नहीं रखा जायगा तो साधु हिंसा के दोष से बच नहीं सकेगा, न पूर्ण अहिंसापालन का दावा कर सकेगा। भिक्षा के समय लगने वाले १० एषणा के दोष-भिक्षा लेते समय निम्नोक्त दस एषणा के दोषों के लगने की संभावना है । इसके लिए यह गाथा प्रस्तुत है 'संकियमक्खियनिक्खित्तपिहिय-साहरियदायगुम्मीसे । अपरिणयलित्तछड्डिय-एसणदोसा दस हवंति ॥'
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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