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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र अधिकार भी मिल जाता है । इसी उद्देश्य को ले कर महाव्रती पूर्ण अहिंसक साधु के लिए भिक्षाचर्या का अनिवार्य विधान किया गया है। इसी कारण अहिंसा का पूर्णरूप से पालन करने के हेतु भिक्षाजीविता अनिवार्य है। क्योंकि तभी वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के हेतु होने वाली पूर्वोक्त आरम्भजन्य हिंसा से बच सकता है, अपने शरीर को भी टिकाए सकता है तथा उससे धर्मपालन भी कर सकता है । जब साधु के लिए भिक्षाचरी अनिवार्य है, तब उसे यह भी देखना आवश्यक होगा कि हिंसा के जिन (पूर्वोक्त) दोषों से बचने के लिए उसने भिक्षावृत्ति स्वीकार की है ; वे ही दोष भिक्षाचरी में पुनः न आ धमकें ! अन्यथा,निकालने गए बिल्ली को, घुस गया ऊंट वाली कहावत चरितार्थ होगी। जिस आरम्भजन्य हिंसा के डर से भिक्षावृत्ति का सहारा लिया ; उसमें और अधिक आरम्भजन्य हिंसा होने लगेगी। क्योंकि गृहस्थजीवन में रहते हुए तो एक ही घर से सीमितमात्रा में आरम्भजन्य हिंसा से काम चल जाता, परन्तु साधु तो विश्वकुटुम्बी बन जाता है और उसके प्रति लोकश्रद्धा भी उमड़ने लगती है । साधु अपनी भिक्षाचरी में अगर पूर्वोक्त आरम्भजन्य हिंसा से बचने का ध्यान नहीं रखेगा तो साधु कहे, चाहे न कहे, उसे जरूरत हो, चाहे न हो, अपनी श्रद्धाभक्तिवश कई श्रद्धालु गृहस्थ अपने-अपने घरों में उसके लिए स्वादिष्ट और बढ़िया भोजन तैयार करने लगेंगे ; उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे आरम्भजन्य हिंसा की परवाह नहीं करेंगे । फिर कई श्रद्धालु या भावुक गृहस्थों को चमत्कार बता कर यंत्र, मंत्र, तंत्र, ज्योतिष आदि के सहारे गृहस्थों का सांसारिक कार्य करके या दुनियादारी के चक्कर में फंस कर साधुवर्ग उनसे अपनी मनचाही आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगेगा । ऐसी दशा में गृहस्थजीवन में होने वाले आरम्भ से भी कई गुना अधिक आरम्भ साधु की भिक्षाचरी के साथ बढ़ जायगा।। इसी दूरगामी परिणाम को दृष्टिगत रख कर शास्त्रकार ने अहिंसा के निरूपण के साथ भिक्षाचरी की विधि और भिक्षाचरी में होने वाले दोषों से बचने का निर्देश किया है, जो समुचित जान पड़ता है,जिससे कि पूर्ण अहिंसामहाव्रती साधु भिक्षाचरी में संभावित उक्त हिंसाजनक दोषों से बच सकें और अहिंसा का पूर्णतः पालन करने में सफल हो सकें। इन सब कारणों से अहिंसा के निरूपण के साथ शास्त्रकार ने भिक्षाविधि के विषय में अंगुलिनिर्देश किया है—'इमं च पुढविदगअगणिमारुयतरुगणतसथावरसव्वभूयसंजमदयट्ठाते सुद्ध उंछं गवेसियव्वं ।' इसका आशय यह है कि साधु पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावरों और द्वीन्द्रिय आदि त्रसजीवों-यानी छही काय के जीवों की हिंसा का नवकोटि (तीन करण और तीन योग) से त्याग करते हैं । वे विश्व के प्राणिमात्र के रक्षक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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