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________________ ५६२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र भी (न) नहीं, (तज्जणाते वि) डांटडपट कर या धमकी दे कर भी (न, नहीं (ताडणाते वि) थप्पड़, मुक्के, लाठी आदि से पीट कर भी (न) नहीं, (भेसणतज्जणतालणाते वि) भय दिखा कर, तर्जन और ताड़न करके भी (भिक्खं न गवेसियव्वं) भिक्षा की गवेषणा न करनी चाहिए। (गारवेण वि) ऋद्धि, रस और साता के गौरवअभिमान से भी (न) नहीं, (कुहणयाए वि) दरिद्रता प्रकट करके या मायाचार करके भी अथवा क्रोध प्रगट करके भी (न) नहीं, (वणीमयाते वि) भिखारी था याचक की तरह दीनता प्रकट करके भी (न) नहीं, (गारवकुहणवणीमयाए वि) गौरव-घमंड, दारिद्रय या दम्भाचार और दीनता इन तीनों को दिखा कर भी (भिक्खं न गवेसियव्वं) भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये, (मित्तयाएवि) मित्रता द्वारा भी (न) नहीं, (पत्थणाएवि) प्रार्थना-अनुनयविनय करके भी (न) नहीं, (सेवणाएवि). सेवा करके भी (न) नहीं (मित्तपत्थणसेवणयाएवि) मित्रता, प्रार्थना और सेवा इन तीनों द्वारा भी, (भिक्खं न गवेसियव्वं) भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए। (अन्नाए) स्वजनादि सम्बन्धों का परिचय न दे करके अज्ञात रूप से, (अगढिए) सम्बन्ध ज्ञात हो जाने पर भी आहारादि में अप्रतिबद्ध या मूर्छारहित, (अदुठे) आहार या दाता पर द्वषभाव से या दुष्टभाव से रहित, (अदोणे) दैन्य-क्षोभ से रहित, (अविमणे) भोजनादि न पाने पर मन में अविकृत-या ग्लानिरहित, (अकलुणे) अपने में होनभाव ला कर दयनीयता से रहित, (अविसाती) विषादयुक्त वचन से मुक्त, (अपरितंतजोगी) निरन्तर मन, वचन और काया को शुभ अनुष्ठान में लगाता हुआ, (जयणधडण-करण-चरिय-विणयगुणजोगसंपउत्ते) यत्न–प्राप्त संयमयोग में उद्यम, अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिए चेष्टा, विनय के आचरण और क्षमादि गुणों के योग से युक्त (भिक्खू) भिक्षाजीवी साधु (भिक्खेसणाते) भिक्षा की शुद्ध एषणा में (निरते) निरततत्पर हो। (इमं चणं) और यह शुद्ध भिक्षा आदि गुणों के प्रतिपादनरूप पूर्वोक्त (पावयणं) प्रवचन-सत्यसिद्धान्त (भगवया) श्रमण भगवान् महावीर ने(सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठाते) सारे जगत् के जीवों की रक्षारूप दया के लिए (सुकहियं) भलीभांति कहा है, जो (अत्तहियं) आत्मा के लिए हितकर है, (पेच्चाभावियं) जन्मान्तर-दूसरे जन्मों में शुद्ध फल के रूप में परिणत होने से भाविक है, (आगमेसिभद्द) आगामीकाल में कल्याणकारी है, (सुद्ध) निर्दोष है, (नेयाउयं) न्याययुक्त है, (अकुडिलं) मोक्ष के लिए सरल है, (अनुत्तरं। सबसे उत्कृष्ट है, (सव्वदुक्खपावाण विउसमणं) समस्त दुःखों और पापों का उपशम करने वाला है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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