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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५५३ न देखी हुई) वस्तु को ही जो ग्रहण करते हैं, वे अदृष्टलाभिक होते हैं । और 'महात्मन् ! पदार्थ साधु के लिए कल्पनीय - ग्राह्य है ?, इस प्रकार पूछे जाने पर जो उपलब्ध हो, उसे ही जो ग्रहण करते हैं, वे पृष्टलाभिक होते हैं । यह frfisवाइएहि परिमिर्या पडवाइएहि - मोदक, आदि भोज्य पदार्थ खंड-खंड करके पात्र में डालने पर ही लेने वाले भिन्नपिंडपातिक कहलाते हैं और परिमित घरों में ही प्रवेश करके और परिमित मात्रा में ही भोज्य वस्तुओं की संख्या निश्चित करके लेने की प्रतिज्ञा वाले परिमित पिंडपातिक कहलाते हैं । अन्तचर - प्रान्तचर, अन्ताहारी - प्रान्ताहारी और अन्तजीवी - प्रान्तजीवी में अन्तर- उपर्युक्त तीनों शब्दयुगल ऊपर-ऊपर से देखने पर समानार्थक दिखाई देते हैं; लेकिन इन तीनों में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है । अन्तचर और प्रान्तचर भिक्षाजीवी वे होते हैं, जो भिक्षा की गवेषणा करते समय ही तुच्छ ( अंत ) और भुक्तावशेष (प्रान्त) आहार लेने का अभिग्रह करते हैं, परन्तु अन्ताहारी प्रान्ताहारी को भिक्षा की गवेषणा करते समय अन्त - प्रान्त आहार लेने का अभिग्रह नहीं होता, किन्तु भोजन करते समय ही अन्त-प्रान्त आहारसेवन करने का अभिग्रह होता है । और अन्तजीवी - प्रान्तजीवी साधुओं के तो जीवनभर वैसा ही आहार करने का नियम होता है, जबकि अन्ताहारी-प्रान्ताहारी साधुओं के परिमित समय तक का नियम होता है । यही अन्तर रूक्षचर, रूक्षाहारी और रूक्षजीवी इन तीनों में तथा तुच्छाहारी और तुच्छजीवी में समझना चाहिए । उपशान्तजीवी और प्रशान्तजीवी में अन्तर - भिक्षा प्राप्त हो या न हो, जिनकी बाह्यवृत्तियाँ उपशान्त रहती हों, यानी जिनके चेहरे और आँखों में भी क्रोधादि की झलक न दिखाई देती हो, वे उपशान्तजीवी कहलाते हैं, और जो बाह्यवृत्ति से ही नहीं, अन्तरवृत्ति से भी क्षुब्ध न होते हों, यानी जिनके चेहरे पर धादि आना तो दूर रहा, मन में भी क्रोधादि का भाव पैदा नहीं होता, वे प्रशान्तजीवी कहलाते हैं । अमज्जमंसासिएहिं जो मद्य, मांस का सेवन कदापि नहीं करते, वे अमद्यमांसाशिक कहलाते हैं । प्रश्न होता है, साधु तो क्या, गृहस्थश्रावक भी, और सप्तकुव्यसनों का त्यागी मार्गानुसारी भी इन दोनों का सेवन नहीं करता, तब पूर्ण साधुओं के लिए तो मद्य-मांस सेवन का सवाल ही नहीं उठता; फिर इनके लिए इस विशेषण का प्रयोग क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि मद्य और मांस दोनों को अचित्त समझकर भी मुनि कभी इनका सेवन नहीं करता है, यह बताने के लिए ही उक्त पाठ दिया है । मद्य अनेक कीटाणुओं के मरने से सड़ा कर बनाया जाता है तथा पीने के बाद नशीला, उत्तंजक और भान भुला देने वाला है, इसलिए सर्वथा वर्जनीय
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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