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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र " संसृष्टकल्पिकैः, तज्जातसंसृष्टकल्पिकैः, उपनिधिकैः, शुद्धैषणिकैः, संख्यादत्तिकैः, दृष्टलाभिकः, अदृष्टलाभिकैः पृष्टलाभिकैराचाम्लकः, पुरिमार्धिक, एकाश निकैः, निर्विकृतिकैः, भिन्नपिंडपातिकैः, परिमितपिंडपातिकैरन्ताहारैः, प्रान्ताहारैः, अरसाहारैः विरसाहारैः रूक्षाहारस्तुच्छाहारैरन्तजीविभिः, प्रान्तजीविभिः, रूक्षजीविभि-स्तुच्छजीविभिरुपशान्तजीविभिः प्रशान्तजीविभिः, विविक्तजीविभिः, अक्षीरमधुसर्पिष्कैः, अमद्यमांसाशिकैः, स्थानादिकैः, प्रतिमास्थायिभिः, स्थानोत्कटिकैः, वीरासनिकैः, नैषधिकः, दण्डायतिकः, लगण्डशायिकः, एकपार्श्वकै रात पक रपाव्रतैरनिष्ठीवक रक डूयकः, धूतकेशश्मश्रुलोमनखैः, सर्वगात्रपरिकर्मविमुक्तः, समनुचीर्णाः, श्रुतधर विदितार्थ कायबुद्धिभिः धीर मतिबुद्धयश्च ये ते आशीर्विषोग्रतेजः कल्पा निश्चयव्यवसायपर्याप्तकृतमतिकाः नित्यं स्वाध्यायध्यानानुबद्ध धर्मध्यानाः पंचमहाव्रतचारित्रयुक्ताः समिताः समितिषु, शमितपापाः षड्विधजगद्वत्सला नित्यमप्रमत्ता एतैरन्यैश्च या साऽनुपालिता भगवती । जान ली गई है । पदार्थान्वय- ( एस ) यह (सा) वह ( भगवती अहिंसा) भगवती अहिंसा है, ( जा ) जो ( अपरिमियनाणदंसणधरेहि) अपरिमित - अनन्तज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले (सीलगुणविणय तवसंजम नायकेहि ) शीलगुण, विनय, तप और संयम के नायक, (सव्वजगवच्छ लेह) समस्त जगत् के जीवों के प्रति वत्सल, (तिलोय महिए हि) तीनों लोकों में पूज्य, (तित्थंकरेहि) तीर्थंकर, ( जिणचंदेहि) जिनचन्द्रों द्वारा (सुठु दिट्ठा) भलीभांति देखी गई — अवलोकित है । ( ओहि जिणेहि ) विशिष्ट अवधिज्ञानियों द्वारा (विष्णाया ) विशेषरूप से ज्ञात -जानी गई है । (उज्जुमतीहि ) ऋजुमतिमनः पर्यायज्ञानियों द्वारा विदिट्ठा) विशेषरूप से देख - - परख ली गई है । ( विपुलमतीहि ) विपुलमतिमनः पर्यायज्ञानियों से ( विदिता) विशेषरूप से (पुब्वधरेहिं ) चतुर्दशपूर्वधारियों ने (अधीता ) इसका अध्ययन कर (वेउव्वीहि) वैयिलब्धिधारकों ने (पतिन्ना ) इसका आजीवन पालन (आभिणिबोहियनाणीह) मतिज्ञानियों ने, (सुयनाणीहि ) श्रुतज्ञानियों ने नाणीहि अवधिज्ञानियों ने, (मणपज्जवनाणीह) मनःपर्यायज्ञान वालों ने, (केवलनाणी हि ) केवल ज्ञानियों ने, ( आमोसहिपत्ते हि ) हाथ आदि के स्पर्शमात्र से औषधि रूप न जाने को रोग निवारक लब्धि प्राप्त करने वालों ने, ( खेलोसहिपर्त्ताह) थूक के औषधिरूप बन जाने की लब्धि पाये हुए पुरुषों ने ( जल्लोसहिपत्तेहि) जिनके शरीर का मैल ही औषधि का काम करता है, ऐसी लब्धि पाये हुए पुरुषों ने, ( विप्पोसहिपत्ते हि ) विष्टा और मूत्र के औषधिरूप बन जाने की लब्धि पाने वालों ने लिया है । किया है । (ओहि ५३८
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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