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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर आत्मा में पूर्ण अहिंसा की स्थिति रहती है। इसलिए अहिंसा को केवलियों का स्थान कहा है। 'सिवं'–अहिसा में निरुपद्रवत्व-शिवत्व रहता है, वह निराबाध सुख का कारण है ; इसलिए इसे शिव कहा है। _ 'समिई'-सम्यक्प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। अहिंसा भी निर्दोष प्रवृत्तिरूप है। इसलिए अहिंसा को समिति कहा गया है । 'सोल संजमोत्ति य'-शील का अर्थ यहाँ समाधान-निराकुलता है । अहिंसा के पालन से व्यक्ति का मनःसमाधान हो जाता है। उसके मन में क्षोभ, आकुलता चंचलता या व्यग्रता नहीं रहती। इसलिए निराकुलतारूप होने से इसे 'शील' कहा है । हिंसा से विरत होना संयम है. और अहिंसा भी प्राणि-हिंसा से निवृत्तिरूप है । इसलिए अहिंसा को 'संयम' भी कहा है । _ 'सीलपरिघरो'. यह शील-सदाचार-चारित्र या ब्रह्मचर्य का घर ही नहीं ; परिघर-पीहर है । समस्त चारित्रों का घर अहिंसा है ; ब्रह्मचर्य के लिए भी अहिंसा का आधार जरूरी है। इसलिए अहिंसा को शील का परिगृह कहा है। - 'संवरो'- अहिंसा आते हुए कर्मों को रोकने वाली है। इसलिए संवररूप होने से इसे 'संवर' कहा है। ___ 'गुत्तो'–अशुभ मन, अशुभ वचन और अशुभ शरीर की क्रियाओं का रोकना गुप्ति है और अहिंसा से भी दुष्ट मन, वचन एवं काया का निरोध हो जाता है। इसलिए अहिंसा को गुप्ति भी कहा है। ___ 'ववसाओ' -- व्यवसाय दृढ़निश्चय या मजबूत संकल्प को कहते हैं। अहिंसा आत्मा का दृढ़निश्चय है । बिना दृढ़ निश्चय के अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। इसलिए अहिंसा का पर्यायवाची नाम 'व्यवसाय' भी संगत है। _ 'उस्सओ'--आत्मा के भावों की उन्नति का नाम उच्छ्य है। अहिंसा का पालन भी आत्मा के परिणामों की उच्चता से किया जाता है। इसलिए आत्मा का सर्वोच्च परिणामरूप होने से अहिंसा को उच्छ्य भी बताया है । अथवा उत्सव में जैसे मनुष्य खुशियाँ मनाता है, आमोदप्रमोद करता है, वैसे ही अहिंसा के सान्निध्य में आत्मा हर्षित और प्रमुदित होता है। इसलिए इसे 'उत्सव' भी कहा जा सकता है। 'जन्नो'-अहिंसा एक यज्ञ है। दान देना, परोपकार करना, देवपूजा करना और संगति करना यज्ञ कहलाता है । अहिंसा के जरिये प्राणियों को अभयदान दिया जाता है, अहिंसा की सहचरी सेवाशुश्र षा, दया आदि के द्वारा परोपकार के काम भी किये जाते हैं, आत्मदेवता की भावपूजा भी अहिंसा के द्वारा होती है और अहिंसा के मुख्य अंग शुद्धप्रेम द्वारा निःस्वार्थ सत्संग भी होता है । इन सब कारणों से अहिंसा महायज्ञरूप है। इसलिए इसे यज्ञ कहा है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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