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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५१६ (विमुत्ती) समस्त बंधनों से छुड़ाने वाली है। (खंती) क्षमारूप, (समत्ताराहणा) सम्यक्त्व का आराधन-सेवन में कारण, (महंती) सब व्रतों में महान्-प्रधान, (बोही) बोधि-धर्मप्राप्ति का कारण, (बुद्धी) बुद्धि को सफल बनाने वाली, (धिती) धृत्ति-चित्त की दृढ़तारूप, (समिद्धी) जीवन को समृद्ध-आनन्दित बनाने वालीसमृद्धि का कारण, (रिद्धी) ऋद्धि (भौतिक लक्ष्मी) का कारण, (विधी) वृद्धि-पुण्यवद्धि का कारण, (ठिती) मोक्ष में स्थित कराने वाली, (पुट्ठी) पुण्यवृद्धि से जीवन को पुष्ट करने वाली अथवा पहले पाप का अपचय करके पुण्य के उपचय का कारण, (नंदा) स्वपर को आनन्दित करने वाली, (भद्दा) स्वपरकल्याणकारिणी, (विसुद्धी) पापक्षय के उपायरूप में होने से जीवन की शुद्धि-निर्मलता का कारण, (लद्धी) केवलज्ञान आदि लब्धियाँ पैदा करने वाली, (विसिट्ठदिट्ठी) विशिष्ट दृष्टिविचार और आचार में अनेकान्त-प्रधान दर्शन वाली, (कल्लाणं) कल्याण या आरोग्य का कारण, (मंगल) पापशमनकारिणी होने से मंगलमयी, (पमोओ) प्रमोद-हर्ष उत्पन्न करने वाली, (विभूती) ऐश्वर्य का कारण, (रक्खा) जीवरक्षारूप, (सिद्धावासो) सिद्धों-निरंजन-निराकार परमात्माओं में निवास कराने वाली-मुक्ति प्राप्त कराने वाली, (अणासवो) अनाश्रवरूप-आते हुए कर्मबन्ध को रोकने वाली, (केवलीण ठाणं) केवलियों के लिए स्थानरूप, (सिवं) शिवरूप-निरुपद्रव सुखरूप, (समिई) सम्यक्प्रवृत्तिरूप, (सोलं) समाधानरूप (य) और (संजमोत्ति) संयमरूप है, (सीलपरिघरो) सदाचार या ब्रह्मचर्य का घर–चारित्र का स्थान, (संवरो) संवररूपआते हुए कर्मों को रोकने वाली, (य) और (गुत्ती) मन, वचन, और काया की अशुभ प्रवृत्ति को रोकने वाली, (ववसाओ) विशिष्ट अध्यवसाय-निश्चयरूप, (उस्सओ) भावों को उन्नतिरूप, (जन्नो) यजन-भावदेवपूजारूप, अथवा यतनाप्राणिरक्षारूप, (अप्पमातो) प्रमादत्याग–अप्रमादरूप; (अस्सासो) प्राणियों के लिए आश्वासनरूप, (वीसासो) सब जीवों के विश्वास का कारण, (अभओ) अभयदानरूप या निर्भयता का कारण, (सव्वस्स वि अमाघाओ) सब जीवों की हत्या के निषेधरूप, अथवा अमारिघोषणारूप, (चोक्ख)-अच्छी, भली लगने वाली, (पवित्ता) पवित्र से भी पवित्र, अथवा पवि-वज्र की तरह त्राण--रक्षण करने वाली, (सूती) भावों की शुचि-निर्मलता रूप, (पूया) भावपूजारूप या पूत-शुद्ध, (विमल) निर्मलता का कारण, (पभासा) आत्मा का प्रकाश--दीप्ति (य) और (निम्मलयरा) अत्यन्त निर्मल अथवा जीव को कर्मरूपी रज से रहित-निर्मल करने वाली निर्मलकरा है। (इति) इस प्रकार (एवमादीणि) ऐसे ही और भी (निययगुणनिम्मियाई) अपने निजी गुणों से
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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