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________________ १० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र पांच प्रकार का और अनादि कहा है- हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य - मैथुन और परिग्रह (मूर्च्छापूर्वक ग्रहण | ) व्याख्या इस गाथा में पांच प्रकार के आश्रव को अनादि कहा है, उस पर से विशेष बात यह सूचित होती है कि अभव्य जीव की अपेक्षा से आश्रव अनादिअनन्त है और भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि सान्त है । जो जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का आराधन करके मोक्ष पाने की योग्यता रखता है, वह भव्य कहलाता है और इसके विपरीत जिसमें मोक्ष पाने की योग्यता न हो, वह अभव्य कहलाता है । यद्यपि समस्त संसारी जीवों के कर्मों का आश्रव प्रवाहरूप से अनादि होता है, तथापि भव्यजीव सम्यग्दर्शन आदि की आराधना करके उस अनादि कर्मप्रवाह का उच्छेद कर डालता है । लेकिन अभव्य जीव को सम्यग्दर्शन आदि प्राप्त नहीं होते, इसलिए उसका कर्मप्रवाह अनादि और अनन्त - अपार होता है । हिंसा - प्रमादवश ( राग-द्वेष से ) स्वपर के प्राणों का घात करना, उन्हें पीड़ा देना हिंसा है । केवल प्राणिवध कर देने मात्र से ही हिंसा नहीं होती, अपितु मन, वचन और काया से किसी को पीड़ा देने, सताने, प्रहार करने, मर्मस्पर्शी वचन बोलने, अनिष्ट चिन्तन आदि से भी हिंसा हो जाती है । कभी-कभी तो प्राणी का ar होते हुए भी भावहिंसा नहीं मानी जाती । उदाहरण के तौर पर एक डाक्टर किसी रोगी का ऑपरेशन कर रहा है । उसकी इच्छा रोगी को स्वस्थ करने की है, परन्तु कदाचित् ऑपरेशन के समय रोगी की मृत्यु हो जाय तो वह डाक्टर हिंसक नहीं माना जाता, क्योंकि उसकी इच्छा रोगी को मारने की नहीं, बचाने की थी । डॉक्टर के परिणाम शुभ होने से उसे पापकर्म का बंध नहीं होता । इसीलिए जैनागम में हिंसा का लक्षण बताया है - ' प्रमाद और कषाय के वश स्वपर के प्राणों को पीड़ा पहुँचाना ।' हिंसा के मुख्य दो भेद हैं- द्रव्यहिंसा और भावहिंसा | द्रव्यप्राणों (शरीर इन्द्रिय आदि) का घात करना द्रव्यहिंसा है और आत्मा में राग, द्वेष, क्रोध आदि पैदा करके आत्मा की शान्ति व क्षमा आदिरूप शुद्ध परिणामों का घात करना भावहिंसा है। ये दोनों हिंसाएँ स्व और पर के भेद से दो प्रकार की होती हैं । अपने द्रव्यप्राणों की हिंसा करना स्व द्रव्यहिंसा है और अपने शान्ति, क्षमा आदि गुणों का घात करना स्वभावहिंसा है । इसी प्रकार दूसरे के द्रव्य प्राणों को हानि पहुंचाना पर द्रव्यहिंसा है और दूसरे के भावप्राणों (शान्ति, क्षमा आदि गुणों) का घात करना पर भावहिंसा है ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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