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________________ ४६८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र महावीर ने इस प्रकार परिग्रह का फलविपाक बताया था, शास्त्रकार भी उसी को दोहरा कर अपनी नम्रता प्रगट करते हैं । उपसंहार शास्त्रकार पूर्वोक्त पाँच अध्ययनों में पांच आश्रवों का निरूपण करने के बाद अब पाँच गाथाओं द्वारा उनका उपसंहार करते हैंमू०--एएहिं पंचहिं आसवेहिं, रयमादिणित्तु अणुसमयं । चउविहगइ - पेरंतं, अणुपरियट्टति संसारं ॥१॥ छाया-एतैः पंचभिराभवः, रज आचित्याऽनुसमयम् ।। चतुर्विधगति-पर्यन्तमनुपरिवर्तन्ते संसारम् ॥१॥ मू०-सव्वगई पक्खंदे, काहेति अणंतए अकयपुण्णा । जे य ण सुणंति धम्म, सोऊण य जे पमायंति ।।२।। . छाया-सर्वगति प्रस्कन्दान्,करिष्यत्यनन्तान् अकृतपुण्याः । ___ ये च न श्रृण्वन्ति धर्म, श्रुत्वा च ये प्रमाद्यन्ति ॥२॥ मू०-अणुसिट्ठ पि बहुविहं, मिच्छादिट्ठीआ जे नरा । बद्धनिकाइयकम्मा, सुणंति धम्मं न य करेंति ॥३॥ छाया-अनुशिष्टमपि बहविधं, मिथ्याष्टिका ये नराः। . बद्धनिकाचितकर्माणः, श्रृण्वन्ति धर्म न च कुर्वन्ति ॥३॥ मू-किं सक्का काउं जे, जं णेच्छह ओसहं मुहा पाउ। जिणवयणं गुणमहुरं, विरेयणं सव्वदुक्खाणं ।।४।। छाया-किं शक्यं कत्तु ये, यन् नेच्छथौषधं मुधा पातुम् । जिन वचनं गुणमधुरं, विरेचनं सर्वदुःखानाम् ॥४॥ मू०-पंचेव य उज्झिऊण, पंचेव य रक्खिऊण भावेण । कम्मरयविप्पमुक्का, सिद्धिवरमणुत्तरं जंति ।।५॥त्तिवेमि।। छाया-पंचैव चोज्झित्वा, पंचैव च रक्षित्वा भावेन । कर्मरजोविप्रमुक्ताः सिद्धिवरमनुत्तरं यान्ति ॥५॥इति ब्रवीमि।। मूलार्थ- इन पांचों (प्राणातिपात आदि) आश्रवों से जीव प्रतिक्षण आत्म प्रदेशों के साथ कर्मरूपी रज का संचय करता हुआ गतिनाम कर्म के उदय से नरक, तिर्यंच, देव, मनुष्य-इस चारगतिरूप संसार में परिभ्रमण करता रहता है ।।१।।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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