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________________ ४६६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र व्याख्या शास्त्रकार अब क्रमप्राप्त फलद्वार के निरूपण के प्रसंग में परिग्रहसेवन से जीवों को क्या-क्या फल मिलते हैं ? इसका संक्षेप में प्रतिपादन करते हैं। इस सूत्रपाठ का अर्थ मूलार्थ और पदार्थान्वय से काफी स्पष्ट है तथा इस प्रकार के समान सूत्रपाठ की व्याख्या पहले के सूत्रपाठों में काफी की जा चुकी है। फिर भी कई स्थलों पर आशय स्पष्ट करने की दृष्टि से कुछ विश्लेषण करना अप्रासंगिक नहीं होगा। परलोयम्मि य नट्ठा-जो व्यक्ति परिग्रह के वशीभूत हो कर नाना प्रकार के सांसारिक पदार्थों को येन-केन-प्रकारेण अन्याय, अनीति या अधर्म से भी जुटाने में तत्पर रहते हैं उनकी हालत यह होती है कि वे अपने परलोक को नष्ट कर डालते हैंबिगाड़ लेते हैं । यहाँ 'य' (च) शब्द पड़ा है, जो इस बात का द्योतक है कि जिसने परलोक को नष्ट कर डाला; उसका यह लोक (जन्म) भी अवश्य नष्ट होता है । उपनिषद् में कहा है-'इतो विनष्टिमहती विनष्टिः' यहाँ का जीवनविनाश महान् जीवनविनाश है । जो यहाँ अपने जन्म को बिगाड़ लेता है—चारित्र से भ्रष्ट,नैतिकता से पतित और अपने ध्येय से भ्रष्ट हो जाता है,वह अपने परलोक को तो अवश्य ही नष्ट कर लेता है । इसलिए 'य' शब्द 'इहलोक' का बोधक है। इसका आशय यह है कि परजन्म को सुधारना या बिगाड़ना किसी और शक्ति, भगवान् या ईश्वर के हाथ में नहीं, हमारे अपने हाथ में है। हम चाहें तो इस . जीवन को अत्यन्त उन्नत, महत्वपूर्ण और सर्वसुख-सम्पन्न मोक्ष के निकट पहुंचा सकते हैं और चाहें तो बुरे आचरणों, दुर्व्यसनों, बुरे मार्ग या बुरे कार्यों मे लगा कर इसे नष्ट कर सकते हैं । इस जीवन का अपने हाथों से इस प्रकार विनाश एक तरह से अनन्त जन्मों का विनाश होगा। क्योंकि पता नहीं, फिर मनुष्यजन्म कब मिले ? इसलिए इस जन्म में जैसा भी मनुष्यजन्म मिला है,जैसी भी परिस्थिति, क्षेत्र, कुल, इन्द्रियों की पूर्णता-अपूर्णता, आयुष्य, शरीरसम्पत्ति आदि प्राप्त हुई है, उसे बदलना तो हमारे हाथ की बात नहीं है । किन्तु हमारा भविष्य हमारे हाथ में है। अगर हम सन्मार्ग का आचरण करें और अशुभ पापमय कार्यों से अपने को बचाये रखें तो अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं । प्रश्न होता है कि जब अपना जीवन बनाना-बिगाड़ना मनुष्य के अपने हाथ में है तो वह जानबूझ कर क्यों अपने जीवन को पतन की आग में धकेलता है ? क्यों नहीं, अपने इहलौकिक जीवन को सुधार लेता ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं'तमं पविट्ठा महया मोहमोहियमती तिमिसंधकारे' अर्थात्-वे स्वयं अज्ञान के गाढ़ अन्धेरे में डूबे रहते हैं। उनकी बुद्धि पर घनी काली अंधेरी रात की तरह तीव्र
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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