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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
किसी तुच्छ आदमी द्वारा की हुई डांटडपट या विडम्बना को भी सह लेते हैं। ऐसे परिग्रहलिप्सु की इज्जत मिट्टी में मिल जाती है, समाज में ऐसे लोगों को कोई शरण नहीं देता, अथवा ऐसे लोगों के यहां कोई शरण-आश्रय नहीं लेता। वे अपनी इन्द्रियों, मन और आत्मा पर अंकुश नहीं रख सकते, इसी कारण अहर्निश क्रोध, अभिमान, माया, और लोभ में डूबे रहते हैं।
सारांश यह है कि परिग्रहग्रस्त मानव १८ पापस्थानों में से किसी भी पापकर्म को बाकी नहीं छोड़ते । परिग्रही में समस्त पाप भरे रहते हैं।
परिग्रह के साथ दुर्गुणों का अवश्यम्भावी सम्बन्ध-इसलिए शास्त्रकार परिग्रह के साथ निम्नोक्त दुर्गुणों का अस्तित्व अवश्यम्भावी बताते हैंअकित्तणिज्जे परिग्गहे चेव होंति नियमा सल्ला ...."इच्छंति परिधेत ।' शास्त्रकार का तात्पर्य यह है कि परिग्रह अपने आप में एक महान निन्दनीय दुर्गुण है, इतना जबर्दस्त कि उसके होते ही मायाचार में प्रवृत्ति होने लगती है, मिथ्याभावनाविपरीत श्रद्धा होने लगती है, भविष्य में भोगों की आकांक्षारूप निदान के दुर्भाव भी पैदा हो जाते हैं। जहाँ परिग्रह होता है वहाँ प्रायः अपनी धन-सम्पत्ति तथा तथा ऐश्वर्य का अभिमान पैदा हो जाता है. सुन्दर, सुखद और स्वादिष्ट चीजों के उपभोग का अहंकार उत्पन्न हो जाता है, अनेक प्रकार के मौजशौक, रागरंग, विलास आदि इन्द्रियसुखों का गर्व घर कर लेता है। परिग्रह पास में होते ही क्रोधादि चारों कषाय वहाँ अपना डेरा जमा लेते हैं, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की संज्ञाए - वासनाए परिग्रह के साथ ही आ धमकती हैं। परिग्रह के आते ही शब्द, गन्ध, रस, और स्पर्श इन पांचों इन्द्रियविषयों के सेवनरूप आश्रव का द्वार खुल जाता है । इन्द्रियाँ मतवाली और चंचल हो जाती हैं। परिग्रह की झंकार होते ही कृष्ण, नील और कापोत ये तीनों लेश्याएं अपना अड्डा जमा लेती हैं। .
परिग्रह के आते ही स्वजनों से अलगाव या किनाराकसी की भावना पैदा हो जाती है। उसके स्वजन तो परिग्रही के साथ सम्पर्क करना चाहते हैं, लेकिन वह धनलोभ के कारण उनसे नफरत करने लगता है। इसके अतिरिक्त परिग्रही के मानस में परिग्रह के सम्पर्क से सजीव,निर्जीव तथा मिश्र तीनों प्रकार के अनन्त द्रव्यों को ममत्वपूर्वक ग्रहण करने की इच्छा अवश्य पैदा होती है, किन्तु वे उन्हें नहीं मिलते हैं तो मन खिन्न होता है।
परिग्रह : एक बेजोड़ पाश-बन्धन-पूर्वोक्त सूत्रपाठ के अनुसार इस संसार में साधु-मुनियों और वीतरागी पुरुषों के सिवाय ऐसा कोई प्राणी बचा नहीं है,जो परिग्रह की चपेट में न आया हो। स्वर्ग के सर्वोच्च देव और देवेन्द्र, मनुष्यलोक के सर्वोच्च मानव चक्रवर्ती तथा विशेष · विभूति वाले भवनवासी देव (असुर) भी जब इसके मायाजाल में फंसे हैं, तब साधारण प्राणियों का तो कहना ही क्या? सवाल होता है कि ऐसे शक्तिशाली और विवेकी प्राणी भी परिग्रह के