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________________ पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव ४८३ निवास करने वाले लोकान्तिक देव प्रायः एक भव-मनुष्यजन्म धारण करके मोक्ष पाते हैं, ये परिग्रह के प्रति अत्यल्प ममत्व रखते हैं। तीर्थकर-प्रभु जब विरक्त होकर मुनिदीक्षा धारण करने के अभिमुख होते हैं, तब ये लोकान्तिक देव उन्हें प्रतिबोधित करने आते हैं । ये देवर्षि होते हैं, जिनवाणी के ज्ञाता और अध्येता होते हैं । ये अपनी समस्त आयु प्रायः इसी प्रकार के उत्तम चिन्तन-मनन में व्यतीत कर देते हैं । इसी प्रकार अनुत्तरविमानवासी देवों का भी मोह उपशान्त होता है । इसलिए चारों निकाय के देवों में इन्हें परिग्रह के बारे में अपवाद समझना चाहिए। देवों का निवास और संक्षिप्त स्वरूप-चारों ही प्रकार के देवों में भवनवासी देवों का निवास अधोलोक में है। अधोलोक में भवनवासी देवों के भवन हैं । उन्हीं में वे रहते हैं, क्रीड़ा करते हैं और आमोद-प्रमोद में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ये दस प्रकार के हैं. असुरकुमार, नागकुमार आदि। इनकी जाति की संज्ञा असुर है, इसलिए वे असुरकुमार आदि नाम से पहिचाने जाते हैं। इनके जातिवाचक नाम के आगे कुमारशब्द इसलिए लगाया गया है कि इनकी वेशभूषा कुमारोंकिशोरों-बालकों की-सी होती है और उन्हीं की तरह ये द्वीप-समुद्र आदि में जा कर क्रीड़ा करते हैं । नागकुमार से इन्हें सर्पजाति के तिर्यक तथा अग्निकुमार आदि से अग्नि आदि नहीं समझना चाहिये । इनके मुकुट में सर्प या अग्नि आदि का विशेष चिह्न अंकित होता है, तथा ये जब भी विक्रिया करते हैं तब सर्प, अग्नि, द्वीप, गरुड़, विद्युत्, मेघगर्जन,पवन आदि के रूप में करते हैं; इसलिए इन्हें नागकुमार, अग्निकुमार आदि से सम्बोधित किया जाता है। इसके पश्चात् उच्च व्यन्तरजाति के अणपनिक आदि ८ व्यन्तरविशेष के नाम गिनाए हैं। इन्हें वाणव्यन्तर भी कहते हैं । इन व्यन्तरों का निवास मध्यलोक में है। जहाँ ये आमोद-प्रमोद से रहते हैं। इसके बाद नीची जाति के व्यन्तरनिकाय के पिशाच, भूत आदि ८ भेद बताए हैं। ये देव विविध अन्तरों-अवकाश वाले स्थानों में रहते हैं। यानी ये सूने मकान, तालाब, कुआ, बावड़ी, वृक्ष आदि स्थानों में रहते हैं। राक्षस आदि कुछ व्यन्तर भवनवासी देवों की तरह अधोलोक में रहते हैं, जहाँ उनके भवन बने हुए होते हैं। इसके अनन्तर ज्योतिषदेवों का वर्णन है । ज्योतिषी देव मध्यलोक (तिर्यग्लोक) में ही रहते हैं । इस भूमि के समतलभाग से ७६० योजन ऊपर जा कर ज्योतिष्क देवों के विमान शुरू होते हैं ; जो ६०० योजन पर समाप्त होते हैं । यानी ११० योजन आकाशक्षेत्र में ज्योतिष्क देवों के विमान हैं; जहां वे निवास करते हैं।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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