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________________ ४eo श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र सर्वथा त्याग करते हैं और न ही परिग्रह की सीमा - मर्यादा करते हैं । प्रश्न यह होता है कि इन सब प्राणियों, खासतौर से मनुष्यों और देवों के परिग्रह सम्बन्धी ममत्त्व के पीछे किसकी प्रेरणा है ? इसका उत्तर शास्त्रकार के ही शब्दों में सुनिये - 'तं च पुण परिग्गहं ममायंति लोभघत्था ।' अर्थात् - संसार के समस्त प्राणी लोभ रूपी पिशाच से ग्रसित होकर 'ममेदं ममेदं'–'यह मेरा है, यह मेरा है' ऐसा कहते हैं और मानते हैं । वास्तव में लोभ ही संसार के समस्त पदार्थों को ग्रहण करने, अपनाने, उपभोग करने और इकट्ठे करने में प्रबल प्रेरकतत्त्व है । लोभ के वशीभूत होकर मानव बड़े-बड़े युद्ध कर बैठता है, अपने भाई, पिता या पुत्र के साथ भी लड़ाई और वैर कर बैठता है, यहाँ तक कि अपने स्वजनों को भी लोभाविष्ट मनुष्य जान से मार डालता है । जैसे भूत या पिशाच से आविष्ट मनुष्य अपने आपे में नहीं रहता, न करने योग्य कार्य भी कर बैठता है,वैसे ही लोभ का भूत जिस पर सवार हो जाता है या लोभ पिशाच से जो आविष्ट हो जाता है, उस मनुष्य को भी अपने आपे का भान नहीं रहता, चाहे जब चाहे जैसा भयंकर अकार्य कर बैठता है । वह आत्मा को अपना मानना छोड़ कर हर मनचाही चीज को अपनी बनाने की फिराक में रहता है । लोभ पाप का बाप बखाना- यह कहावत यथार्थ है । जीवन में जहाँ लोभ घुस जाता है, वहाँ अनेक पाप आकर अपना डेरा जमा लेते हैं । क्या हिंसा, क्या असत्य, क्या चोरी - जारी, बदमाशी या झूठफरेब, छल-कपट, धोखेबाजी, धूर्तता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, वैरविरोध, कलह, संघर्ष, आसक्ति आदि जितने भी दोष हैं, पाप हैं, उन सब पापों का मूल जनक लोभ ही हैं । यह लोभ ही था, जिसके कारण सम्राट् कोणिक ने अपने पिता को लोहे के पींजरे ( कैद ) में बंद कर दिया था ! लोभ के कारण ही उसने अपने भ्राता हल्लविहल्लकुमार से हार और हाथी छीनने के लिए अपने मातामह चेडानृप से भयंकर युद्ध किया था । वह कौन-सा अनर्थ है, जो लोभ के कारण न हुआ हो । इसलिए लोभ को समस्त पापों का पिता कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । इसीलिए शास्त्रकार ने इस पाठ के उपसंहार में कहा है- 'लोभ-परिग्गहो जिणवरेहि भणिओ ।' परिग्रहकर्ता कौन-कौन ? — यों तो परिग्रह के चक्कर में समभावी मुनि को छोड़ कर सारा संसार ही है । परिग्रह की संसार में इतनी बड़ी धूम है कि शायद कोई विरला ही इससे बचा हो । इसलिए शास्त्रकार ने 'भवणवरविमाणवासिणो से लेकर 'ते चव्विहा सपरिसा वि देवा ममायंति' तक का पाठ एवं उससे आगे 'अच्चंत विपुल लोभाभिभूतसन्ना' से लेकर 'अमच्चा एए अन्न य एवमाती परिग्गहं
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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