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________________ ४७३ पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव रथ, आदि सुन्दर सवारियां, विमान, शय्याएं (पलंग, खाट आदि) और आसन, (य) और (नाणाविहवत्थभूसणा) अनेक प्रकार के वस्त्र एवं आभूषण, (पवरपहरणाणि) उत्तमोत्तम अस्त्र-शस्त्र (य) और (नाणामणिपंचवन्नदिव्वं) नाना प्रकार की मणियों के पचरंगे दिव्य, (भायणविहि) विविध प्रकार के भाजन - बर्तन, (नाणाविहकामरूव-वेउव्विय-अच्छरगण-संघाते) अपनी इच्छानुसार नाना प्रकार के रूप विक्रिया से बनाने वाली अप्सराओं के समूह को। (य) और (दीवसमुद्दे) असंख्यात द्वीप-समुद्रों को, (दिसाओ) दिशाएँ (विदिसाओ) विदिशाएं (चेतियाणि) चैत्यवृक्ष (वणसंडे) वनसमूह (य) एवं (पन्वते) पहाड़ (य) तथा (गामनगराणि य) गाँव और नगर, (आरामुज्जाणकाणणाणि) लोगों द्वारा बनाई हुई छोटी सी बाटिका, उद्यान-खेलने का बगीचा, घना जंगल (य) और (कूव-सर-तलाग-वावि-दीहिय-देवकुल-सभ-प्पववसहिमाइयाई) कुंए, सरोवर, तालाब, बावड़ियाँ, बड़ी बावड़ियाँ, देवमन्दिर, सभाएं प्याऊएं, आश्रम आदि स्थानों (य) तथा (विपुलदव्वसारं) बहुत अधिक सारभूत द्रव्यमय (परिग्गह) परिग्रह को, (परिगेण्हिता) स्वीकार करके, (सईदगा) इन्द्रों . सहित (देवा वि) देवता भी (अच्चंतविपुललोभाभिभूतसन्ना) जिनकी संज्ञाएं -इच्छाएं अत्यन्त भारी लोभ से प्रभावित हैं, (वासइक्खुगारवट्टपव्वयकुंडलरुचगवरमाणुसोत्तरकालोदधि - लवणसलिलदहपतिरतिकर - अंजणकसेल - दहिमुहवप्पातुप्पायकंचणक-चित्तविचित्त-यमकवरसिहरकूटवासी) वर्षधर पर्वत–कुलाचल पहाड़, इषुकार पर्वत, वर्तुलाकार-गोलाकार विजयार्द्ध पर्वत, कुंडलद्वीप के अन्तर्गत कुण्डलाकारपर्वत, रुचकवरद्वीप के अन्तर्गत मण्डलाकारपर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदधि समुद्र, लवणोदधि, गंगा आदि महानदियों, पद्म–महापद्म आदि बड़े-बड़े ह्रदोंझीलों, रतिकर पर्वतों, नन्दीश्वर द्वीप के अन्तर्गत अंजनक नामक पर्वत, तथा दधिमुख नाम के पर्वतों, जहाँ पर वैमानिक देव मनुष्यक्षेत्र में आते हैं उन पर्वतों, कांचनमय पर्वतों, चित्रविचित्र कूटपर्वतों, यमकवर नामक पर्वतों,समुद्रमध्यवर्ती गोस्तूपादि पर्वतों, और नन्दनवन कूट आदि में निवास करने वाले देव (न तित्ति) न तो तृप्ति और (न तुट्ठि) न संतोष ही (उवलभंति) पाते हैं । (वक्खार अकम्मभूमिसु) जिसमें वक्षार पर्वत विशेष है, ऐसी हैमवत आदि अकर्मभूमियों में (य) तथा (सुविभत्तभागदेसासु) जिनमें देशों का अच्छी तरह विभाग किया हुआ है ऐसी (कम्मभूमिसु) भरत आदि आदि १५ कर्मभूमियों में (जो वि) जो भी (चाउरंतचक्कवट्टी) भरतक्षेत्र को चारों दिशाओं में चक्र द्वारा विजय प्राप्त करने वाले चक्रवर्ती (वासुदेवा) वासुदेव-नारायण, (बलदेवा)बलभद्र (मंडलीया)मांडलिक राजा,(इस्सरा)युवराज आदि या जागीरदार लोग,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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