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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ४६० कि ये कपड़े या ये पदार्थ मेरे काम में आएँगे । उसे यह पता नहीं है कि काल किस समय आ दबोचेगा । उस समय ये सब चीजें यहीं की यहीं धरी रह जायेंगी । अथवा वह जिस समय उन पदार्थों में से किसी को काम में लेना चाहेगा, उस समय बीमारी, अशक्ति, अंगविकलता आदि अन्तरायों के कारण वह उन्हें जरा भी काम में नहीं ले सकेगा । इसलिए 'संभार' में भी परिग्रह के समान ग्रहण करकै केवल भरने या भरे रखने की दृष्टि होने से वह भी परिग्रह का मित्र है । 'संकरो' – भिन्न-भिन्न पदार्थों को मिला कर - एकत्र करके रखना 'संकर' कहलाता है । कई बार मनुष्य के मन में यह विचार आता है कि अगर यह कीमती चीज अलग रखी जायगी तो कोई मांग लेगा या घर का कोई आदमी इसका इस्तेमाल कर लेगा । अतः वह उस बहुमूल्य चीज को दूसरी घटिया चीजों के साथ इस तरह मिला कर रख देता है कि दूसरे को झटपट न मिले। इस संकरवृत्ति के पीछे उस वस्तु के पीछे ममत्त्व की भावना होती है, और यही बात परिग्रह में होती है । इसलिए 'संकर' को परिग्रह का समानार्थक शब्द कहना उचित हैं । 'आय' - अपने शरीर, धन, धान्य आदि का आदर-सत्कार करना, लाडप्यार करना 'आदर' कहलाता है । कई मनुष्यों को देखा गया है कि वे अपने धन, शरीर या वस्त्र आदि को बहुत ही सहेज कर हिफाजत से रखते हैं । शरीर सशक्त है, . परोपकार के काम में आ सकता है, अथवा गृहकार्य करने में भी सशक्त है, लेकिन उसके प्रति मोह या आसक्ति होती है; इसलिए वे न तो उससे कुछ काम लेते हैं, न परोपकार के लिए शरीर का उपयोग करते हैं; जीवनभर आलसी, और अकर्मण्य बन कर शरीर को ही सजाने-संवारने या धनादि को हिफाजत से रखने–रखाने में लगे रहते हैं । उनकी यह वृत्ति प्रवृत्ति मोह - ममत्ववश होती है, इस लिए आदर को परिग्रह का जनक कहना उपयुक्त है । 'पिंडों' - किसी वस्तु या धन की राशि बनाना या ढेर करना या एकत्रीकरण करना पिंड कहलाता है । मनुष्य कई वार लोभवश धन की राशि करने में या किसी वस्तु का ढेर करने में ही लग जाता है, उस धुन में वह न तो ठीक तरह से खातापीता है, न ही सोता है, न किसी से मिलता-जुलता है, न अपने परिवार या समाज के प्रति कर्त्तव्यों पर ध्यान देता है और न ही किसी परोपकार के काम में प्रवृत्त होता है । रातदिन मम्मण सेठ की तरह धन के ढेर लगाने में या किसी चीज को एकत्र करने में ही तेली के बैल के समान जुता रहता है । पिंड लोभवश ही होता है, और लोभ परिग्रह को उत्तेजित करता है । इस कारण पिंड को परिग्रह का जनक कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं । 'दव्वसारो' - द्रव्य को ही संसार में एकमात्र सारभूत वस्तु मानना द्रव्यसार
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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