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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
सम्यग्दर्शन, क्षमा, आर्जव आदि आत्मगुणों से जिनके हृदय ओतप्रोत हो गए हैं, उन महान आत्माओं के हृदय में बाह्यपरिग्रह के प्रति ममत्वभाव स्वतः नष्ट हो जाता है ।
ममत्वभाव के निमित्त होने से बाह्यपदार्थ भी परिग्रह बन जाते हैं । शास्त्रों में ऐसे बाह्यपरिग्रह का १० भागों में वर्गीकरण किया गया है— (१) क्षेत्र - खेत या खुली भूमि, अथवा नगर, गाँव, राष्ट्र आदि क्षेत्र, (२) वस्तु — रहने के मकान, महल, बंगले, दूकान आदि, (३) हिरण्य - सोनेचांदी के सिक्के, (४) सुवर्ण - सोना, (५) धन - हीरा, पन्ना, मोती वगैरह, (६) धान्य ---- - गेहूं, चावल, आदि अनाज, (७) द्विपद-चतुष्पद - दो पैर वाले मनुष्य या स्त्री वगैरह तथा गाय भैंस, घोड़ा आदि चौपाये जानवर, (८) दासी - दास - नौकर - नौकरानी, (8) कुप्य सोने-चाँदी के अतिरिक्त वस्त्र बर्तन, पलंग, खाट, अलमारी आदि घर का सारा सामान । (१०) धातु - चाँदी, ताँबा, पीतल, लोहा आदि अन्य धातु ।
'णाणामणि - कणगरयण भवणविहिं चेव बहुविहीयं । - पूर्वोक्त बाह्य परिग्रह को स्पष्ट रूप से बताने के लिए स्वयं शास्त्रकार निरूपण करते हैं कि अनेक प्रकार की मणियाँ, सोना, रत्न, आभूषण, सुगन्धित पदार्थ, स्त्री, पुत्र, परिजन, दासी, दास, नौकर-चाकर, कर्मचारी, घोड़े, हाथी, गायें, बैल, भैंस, ऊँट, गधे, बकरेबकरियाँ, भेड़, पालकी, बैलगाड़ियाँ, रथ, जहाज, शय्या, पलंग, बिछौने, सवारियाँ, घर का सब सामान, धन, धान्य, पेय पदार्थ, भोज्य पदार्थ, कपड़े, सुगन्ध, पुष्पमाला, बर्तन, मकान आदि अनेक प्रकार की चीजें मनुष्य ममत्वपूर्वक रखता है, संग्रह करता है या अपनी मान कर उन पर मूर्च्छा करता है, वे सब बाह्य परिग्रह हैं ।
'भरहं णगणगर नियम ससागरं भुंजिऊण वसुहं – ये ऊपर गिनाई हुई वस्तुएँ ही क्यों ? मनुष्य की इच्छाएँ तो आकाश के समान अनन्त है; लोभ का कोई पार नहीं है । इसीलिए शास्त्रकार पूर्वोक्त वस्तुएँ मोटेतौर से बता देने के बाद सूत्रपाठ की उपर्युक्त पंक्तियों द्वारा स्पष्ट बता रहे है कि चक्रवर्ती की विभूति मनुष्यवर्ग में सर्वोत्तम मानी जाती है । चक्रवर्ती के समान वैभव, रत्नों, निधियों तथा गौरव के पाने का सौभाग्य मनुष्यों में से किसी को नहीं होता । भूतल पर मनुष्यजाति में चक्रवर्ती ही सर्वोत्कृष्ट भौतिक शक्ति का प्रतिनिधि होता है । उसे १४ रत्न और निधियाँ पुण्ययोग से प्राप्त होती हैं, जिनका वर्णन हम पिछले अध्ययन में कर आए हैं। भरतक्षेत्र में जितने भी पर्वत, नगर निगम, जनपद आदि होते हैं, उन सबका स्वामी चक्रवर्ती होता है, उसका एकछत्र, निष्कंटक, स्थिर एवं समुद्रपर्यन्त विस्तीर्ण शासन होता है । लेकिन यह सब बाह्य महापरिग्रह पाकर भी चक्रवर्ती को शान्ति और सन्तोष नहीं होता है । तब थोड़ा-बहुत बाह्य परिग्रह रखने वालों को संतोष एवं शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ?
वास्तव में जिस पुण्यवान जीव ने बहुमूल्य अलंकारों से अपने शरीर को सजाया,