________________
पंचम अध्ययन : परिग्रह आश्रव
४५१
परिग्रह का त्याग है । इसलिए वास्तविक मूल परिग्रह तो ममत्त्वभाव है और उसके निमित्त होने से धन आदि भी बाह्य परिग्रह हैं।
जिस व्यक्ति ने धन, धान्य आदि में ममत्व का, अधिकार का या स्वामित्व (मालिकी) का त्याग कर दिया है, उस व्यक्ति के बाह्य परिग्रह का भी त्याग हो जाता है । उसे बाह्य पदार्थों पर ममत्व रह ही कैसे सकता है ? उसके सामने या आसपास लाखों की सम्पत्ति पड़ी रहे, बाग-बगीचे, मकान, दूकान, सामान, नगर, गाँव या राष्ट्र रहें तो भी उन पर उसका ममत्व या स्वामित्व न रहने से उसके लिए वह परिग्रह का त्याग ही है। ऐसी हालत में यदि उस ममत्वत्यागी को कोई आवश्यकता समझ कर धन, मकान या राज्य आदि कोई चीज देना चाहेगा या लेने के लिए अनुरोध करेगा तो भी वह उन्हें कदापि ग्रहण नहीं करेगा।
एक व्यक्ति अभाव के कारण या उपलब्ध न हो सकने के कारण बाह्य पदार्थ नहीं रखता, किन्तु उन सुन्दर और मनोज्ञ वस्तुओं को देख-देख कर वह मन में ललचाता है, अथवा मन में उनके पाने के लिए चिन्तन करता है, योजना बनाता है, तो वह वास्तव में परिग्रहत्यागी नहीं है। जिसे चीज उपलब्ध हो सकती है, या लोग आदरपूर्वक किसी मनोज्ञ, सुन्दर या अभीष्ट चीज को उसे भेंट देना चाहते हैं, फिर भी वह उन्हें ग्रहण नहीं करता. यहां तक कि उनकी ओर देखता तक नहीं, मन से भी उन्हें चाहता नहीं; वही वास्तव में परिग्रहत्यागी है।
परिग्रह के भेद-मूर्छा या ममता ही परिग्रह की परिभाषा होने के कारण परिग्रह के मुख्य दो भेद होते हैं-अंतरंग और बाह्य। मूर्छा-ममता करना अन्तरंग परिग्रह है । आशय यह है,जब आत्मा अपनी निजी वस्तु अर्थात् सहज शुद्ध निजस्वभाव या ज्ञानदर्शनादि निज गुणों को छोड़ कर परभावों-क्रोधादि कषायों या मिथ्यात्व, हास्यादि विकारों या राग-द्वेष आदि में रमण करने लगता है, उन्हें ही अपने मान कर अपना लेता है, तब वे कर्मजन्य विकारभाव आत्मा के लिए अन्तरंग परिग्रह कहलाते हैं। वे अन्तरंग परिग्रह १४ हैं-१ मिथ्यात्व, २ राग, ३ द्वं ष, ४ क्रोध, ५ मान, ६ माया, ७ लोभ, ८ हास्य, ६ रति, १० अरति, ११ शोक, १२ भय, १३ जुगुप्सा और १४ वेद । आत्मा ने अनादिकाल से इन मिथ्यात्व आदि अन्तरंग परिग्रहों को पकड़ रखा है, अपना रखा है। इनके कारण नित्य नये-नये कर्मबन्धन से जकड़ा जाता हुआ प्राणी अपनी स्वाभाविक ऊध्वगमनशक्ति को खो बैठा है और वायु के झोकों से चंचल बनी हुई अग्नि की लपटों के समान अपनी स्वाभाविक स्थिति से हट कर वह इधर-उधर नरक-तिर्यञ्च आदि गतियों में गुमराह हो कर भटक रहा है। वास्तव में मिथ्यात्व, क्रोधादि कषाय एवं वेद आदि अन्तरंग परिग्रह ही आत्मा का पतन करने वाले हैं। जिनके अन्तःकरण से ये निकल गये हैं और