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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
जिसकी सौ जिह्वाएँ हों तो भी, सौ वर्ष में भी वह कह नहीं सकता । देवलोक में दिव्य अलंकार से सुसज्जित शरीर वाले देव जब वहाँ से च्युत होते हैं -- शरीर छोड़ते हैं ; तब वह दुःख उनके लिए अतिदारुण होता है । उस देवविमान के वैभव को, देवलोक से च्यवन - दूसरे लोक में गमन को सोच-सोच करके चाहे जितना बलवान हो तो भी उसका हृदय सौ टुकड़ों में फट जाता है । देवता भी ईर्ष्या, विषाद, मद, क्रोध, मोह, लोभ, माया इत्यादि दुर्गुणों से पीड़ित हैं ; तब भला उन्हें सुख कहाँ से हो ? इस प्रकार चारों गतियों में गमनरूप दुःखमय संसार में भ्रमण करते हुए संवरधर्म को अप्राप्त (नहीं पाए हुए) जीवों को कहीं सुख नहीं है । इस संसार में विकथा, प्रमाद, मिथ्यात्व, दुष्टयोग ( मन-वचन-काया का व्यापार ) वशीभूत जीव दुःखों की परम्परा पाते हैं । ऐसा जान कर चतुर अप्रमादी हो कर अनादिकालीन मोह आदि दोषों का संग छोड़ देना चाहिए । अन्त में, शास्त्रकार . अब्रह्मसेवन के फलविपाक इसका अर्थ मूलार्थ और पदार्थान्वय से स्पष्ट है ।
संज्ञा, कषाय,
एवं दुर्ध्यान के
जीवों को सदा
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उपसंहार — इस सूत्रपाठ के
पर पुनः संक्षेप में प्रकाश डालते हैं
।
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सारांश यह है कि अब्रह्मचर्यसेवन की देवों, मनुष्यों, असुरों, तिर्यञ्चों आदि में सर्वत्र धूम है और उसका कटुफल भी अनन्तकाल तक भोगना पड़ता है; परन्तु फल भोगने के समय बुद्धि पर मिथ्यात्व का पर्दा होने से पुनः पुनः जीव इस चिरपरिचित कामविकार का सेवन करता है और फिर संसारसागर में गोते लगाता है । अतः अब्रह्मचर्य का त्याग किये बिना जीव को कदापि शान्ति नहीं मिलती ।
इस प्रकार सुबोधिनीव्याख्यासहित प्रश्नव्याकरणसूत्र के चतुर्थ अध्ययन ब्रह्मचर्य आश्रव के रूप में चौथा अधर्मद्वार समाप्त हुआ