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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा, उसी के गले में सीता वरमाला डालेगी।' ठीक समय पर राजा, राजकुमार और विद्याधर आ पहुंचे । अयोध्यापति राजा दशरथ के पुत्र रघुकलकमलदिवाकर रामचन्द्र भी अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ उस स्वयंवर में आए थे। महाराजा जनक ने सभी समागत राजाओं को सम्बोधित करते हुए कहा'महानुभावो ! आपने मेरे आमंत्रण पर यहाँ पधारने का कष्ट किया है, इसके लिए धन्यवाद ! मेरी यह प्रतिज्ञा है कि जो वीर इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी के गले में सीता वरमाला डालेगी।" यह सुन कर सभी समागत राजा, राजकुमार
और विद्याधर बहुत ही प्रसन्न हुए। सब को अपनी सफलता की आशा थी । सब विद्याधरों और राजाओं ने बारी-बारी से अपनी ताकत अजमाई, लेकिन धनुष किसी से भी टस से मस नहीं हुआ। राजा जनक ने निराश होकर खेदपूर्वक जब सभी क्षत्रियों को फटकारा कि क्या यह पृथ्वी वीरशून्य हो गई है ! तभी लक्ष्मण के कहने पर रामचन्द्रजी उस धनुष को चढाने के लिए उठे। सभी राजा आदि आश्चर्यचकित थे । रामचन्द्रजी ने धनुष के पास पहुंच कर पंचपरमेष्ठी का ध्यान किया । धनुष का अधिष्ठायक देव उसके प्रभाव से शान्त हो गया। तभी श्रीरामचन्द्रजी ने सबके देखते ही देखते क्षणभर में धनुष को उठा लिया और झट से उस पर बाण चढ़ा दिया । सभी ने जयनाद किया। सीता ने श्रीरामचन्द्रजी के गले में वरमाला डाल दी। वहीं विधिपूर्वक दोनों का पाणिग्रहण हो गया। विवाह के बाद श्रीरामचन्द्रजी सीता को ले कर अपने अन्य परिवार के साथ अयोध्या आए। सारी अयोध्या में खुशियाँ मनाई गई। अनेक मंगलाचार हुए। इस तरह कुछ समय आनन्दोल्लास में ब्यतीत हुआ।
एक दिन राजा दशरथ के मन में इच्छा हुई कि रामचन्द्र को राज्याभिषिक्त करके मैं अब त्यागी मुनि बन जाऊँ । परन्तु होनहार बलवान है । जब रामचन्द्रजी की विमाता कैकयी ने यह सुना तो उसने सोचा कि राजा अगर दीक्षा लेंगे तो मेरा पुत्र भरत भी साथ ही दीक्षा ले लेगा। अत: भरत को दीक्षा लेने से रोकने के लिए उसने राजा दशरथ को युद्ध में अपने द्वारा की हुई सहायता के फलस्वरूप प्राप्त और सुरक्षित रखे हुए वर को इस समय मांगना उचित समझा। महारानी कैकयी ने राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत को राज्याभिषेक देने का वर माँगा। महाराजा दथरथ को अपनी प्रतिज्ञानुसार यह वरदान स्वीकार करना पड़ा। फलतः श्रीरामचन्द्रजी ने अपने पिता की प्रतिज्ञा का पालन करने और भरत को राज्य का अधिकारी बनाने के लिए सीता और लक्ष्मण के साथ वनगमन किया। वन में भ्रमण करते हुए वे दण्डकारण्य पहुंचे और वहाँ पर्णकुटी बना कर रहने लगे।
एक दिन लक्ष्मणजी घूमते-घूमते उस वन के एक ऐसे प्रदेश में चहुँचे, जहां