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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
आशय यह है कि जो पहले सिद्धान्तवादी था, जिसकी बात को लोग . पत्थर की लकीर मानते थे, वह परस्त्री के चक्कर में जब पड़ जाता है तो सिद्धान्त आदि से भ्रष्ट हो जाता है। कहा भी है_ 'धर्म शीलं कुलाचारं शौर्य स्नेहं च मानवः ।
तावदेव ह्यपेक्ष्यन्ते यावन्न स्त्रीवशो भवेत् ॥' ___ अर्थात्-'मनुष्य तब तक ही धर्म, शील, कुलाचार, शौर्य, जाति, कुल और स्नेह की अपेक्षा करता है, जब तक वह किसी स्त्री के प्रेम में नहीं पड़ जाता।' बहुधा किसी सुन्दरी के मोह में पड़ने वाले धर्म, सदाचार, कुल की नीतिरीति, सिद्धान्त, स्नेह, जाति और समाज के साथ सम्बन्ध आदि सबको एक झटके में तोड़ फैकते हैं । ऐसे लोग अपने उस ऐब या दोष को क्रान्ति के नाम से छिपाते हैं, समाज में क्रान्तिकारी के नाम से वे अपने को प्रसिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। वास्तव में, ऐसा कामुक व्यक्ति खुद तो बिगड़ता है ही; अपने परिवार को भी बिगाड़ता है, समाज में भी गलत संस्कारों का चेप छोड़ जाता है।
'धम्मगुणरया य बंभचारी खणेण उल्लोट्ठए चरित्ताओ'-बड़े-बड़े तपस्वी, धर्मात्मा, गुणवान और ब्रह्मचारी भी स्त्री के सम्पर्क, आसक्तिमय संसर्ग और जाल में फँस कर अपने सुन्दर चरित्र से भ्रष्ट या पतित हो जाते हैं। सामान्य मनुष्यों की तो बात ही क्या ? कहा भी है
'श्लथसद्भावना - धर्मः, स्त्रीविलासशिलीमुखैः ।
मुनिर्योद्धा हतोऽधस्तान्निपतेच्छीलकुजरात् ॥' अर्थात्—'कर्मशत्रुओं के साथ युद्ध करने वाला धर्मयोद्धा मुनिवर भी स्त्रियों के हावभाव और लीलारूपी बाणों से घायल होकर श्रेष्ठ भावनारूप अपने धर्म से शिथिल हो जाता है और ब्रह्मचर्यरूपी हाथी से नीचे गिर जाता है।' वास्तव में स्त्री संसर्ग ही मोहवृद्धि का कारण होता है और उससे कामवासना अंकुरित होती है, जो अत्यधिक आसक्ति से फलती-फूलती है। रथनेमि जैसे त्यागी साधु भी एकान्त में सती राजीमती का रूप-लावण्य देख कर अपने संयम से चलायमान हो गए थे; मुनिश्रेष्ठ स्थूलभद्र के गुरुभ्राता कोशावेश्या पर मोहित होकर अपने संयम से पतित होने को उद्यत हो गए थे । जब इतने महान् संयमी भी स्त्री के जरा-से सम्पर्क से डोल गए, और अपने धर्म को तिलांजलि देने के लिए तैयार हो गए, तब भला, सामान्य व्यक्तियों का तो कहना ही क्या ?
'जसमंतो - पार्वति अयसकित्ति, रोगत्ता वाहिया पड्ढिति रोयवाही'बड़े-बड़े यशस्वी व्यक्ति,जिनकी दूर-दूर तक कीति फैली हुई होती है,जो उत्तम व्रतधारी