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________________ ४१० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र रोगों से पीड़ित तथा कोढ़ आदि व्याधियों से दुःखी मानव कामसेवन को तीव्रवासना के कारण (रोयवाही) रोग और व्याधि को (पवड्ढंति) और ज्यादा बढ़ाते हैं । (जे) जो प्राणी (परस्स दाराओ) दूसरे की स्त्रियों से (अविरया) विरत नहीं हैं, या त्याग नहीं किया है,वे (दुवे य लोया) दोनों लोकों में (इहलोए चेव परलोए) इस लोक में तथा परलोक में (दुआराहगा) दुःख से आराधक–आराधना करने वाले(भगति) होते हैं । (तहेव) इसी प्रकार (केई) कई लोग (परस्स) पराई (दाएं) स्त्रियों की (गवेसमाणा) फिराक-तलाश में रहने वाले (गहिया) पकड़े जाते हैं, (य) और (हया) पोटे जाते हैं,(य) तथा (बद्धरुद्धा) बांधे जाते हैं और जेल में बन्द कर दिये जाते हैं । (एवं) इस प्रकार (विपुलमोहाभिभूयसन्ना) तीव्र मोह से या मोहनीय कर्म के उदय से उनको सद्बुद्धि मारी जाती है, वे (एवं गच्छंति जाव) इस प्रकार वे नीची गति में जाते हैं । यह तृतीय अध्ययन के पाठ तक समझ लेना चाहिए। (य) तथा (मेहुणमूलं) मैथुनसेवन करने के निमित्त (तत्थ-तत्थ) उन-उन शास्त्रों में (सीयाए, दोवईए कए रुप्पिणीए, पउमावईए, ताराए, कंचणाए, रत्तसुभद्दाए, अहिनि(ल्लि)याए, सुवनगुलियाए, किन्नरीए, सुरूवविज्जुमतीए य रोहिणीए) सीता के लिए, द्रौपदी के लिए, रुक्मिणी के लिए, पद्मावती के लिए, तारा के लिए, कांचना के लिए, रक्तसुभद्रा के लिए, अहिल्या के लिए, स्वर्णगुटिका के लिए, किन्नरी के लिए, सुरूपविद्युन्मती के लिए और रोहिणी के लिए, (वत्तपुव्वा) पूर्वकाल में हुए (जणक्खयकरा) मनुष्यों का संहार करने वाले (संगामा) युद्ध (सुव्वए) सुने जाते हैं। (य) और (एवमादिकेसु अन्नसु महिलाकएसु गामधम्ममूला बहवो अइक्कंता संगामा) ये और इस प्रकार की अन्य स्त्रियों के लिए इन्द्रियविषयों के निमित्त भूतकाल में हुए बहुत-से संग्राम (सुव्वंति) सुने जाते हैं। (अबंभसेविणो) मैथुनसेवन करने वाले जीव (इहलोए ताव नट्ठा) इस लोक में तो बदनामी आदि होने के कारण नष्ट हो ही जाते हैं, (परलोए वि य नट्ठा) परलोक में भी नष्ट होते हैं। (तसथावरसुहुमबायरेसु) त्रस, स्थावर, सूक्ष्म या बादर जीवों में, (य) तथा (पज्जत्तमपज्जत्तसाहारणसरीरपत्तेयसरीरेसु) पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण और प्रत्येकशरीरी जीवों में (य) और अंडजपोतजजराउयरसजसंसेइमउब्भियउववादिएस) अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, (रस में जन्म लेने वाले), संस्वेदिम–पसीने से पैदा होने वाले, उद्भिज्ज और औपपातिक जीवों में, ऐसे (नरगतिरियदेवमाणुसेसु) नरक, तियंच, देव और मनुष्यगति के जीवों में (जरामरणरोगसोगबहुले) बुढ़ापा, मृत्यु, रोग
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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