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________________ ४०५ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव निश्चिन्त और रोगशोकमुक्त थीं, और वृद्धत्व से, सफेद बालों से, अंगविकलता से एवं चेहरे पर झुर्रियों आदि से वे रहित थीं। कोई कह सकता है कि वे असभ्य और फूहड़ होंगी, उनमें आधुनिक सभ्यता नहीं होगी, इसलिए उनका जीवन सभ्य-जीवन नहीं होगा ! इसका उत्तर एक ही पद में स्वयं शास्त्रकार ने दे दिया है--'पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता' अर्थात्--वे मुख्य-मुख्य महिलागुणों से सम्पन्न होती हैं। प्राचीनकाल में महिला के प्रधान गुणों में ६४ कलाएं मानी जाती थीं। ६४ कलाओं में ऐसी कोई विद्या या कला बाकी नहीं रह जाती, जो महिलाओं के प्रधान गुणों की पूर्ति न कर सके । यह ठीक है कि भोगभूमि की स्त्रियाँ ६४ कलाओं का शिक्षण नहीं पाती थीं, फिर भी उनका जीवन स्वभावतः ही कलापूर्ण था। इसलिए उन्हें असभ्य और फूहड़ कसे कहा जा सकता है ? वर्तमान की पढ़ी-लिखी, फेशनपरस्त और शृंगारप्रिय,चालाक तथा कलहप्रिय युवतियों से तो कहीं अच्छी होती हैं वे। अतः प्रकृति से ही वे शान्त, सभ्य और नारी सुलभ लज्जा और संकोच से युक्त होती हैं। उनके शरीर पर भले ही बाह्य अलंकार नहीं होते; परन्तु उनके जीवन में निम्नोक्त दस स्वाभाविक अलंकार अवश्य होते हैं । कहा भी है-- 'लीला-विलासो विच्छित्ति बिब्बोकः, किल किंचितं । मोट्टायितं कुट्टमितं ललितं विहृतं तथा ॥ विभ्र मश्चेत्यलंकाराः स्त्रीणां स्वाभाविका दश ।' यानी लीला, विलास, हावभाव, रूठना, क्रीड़ा करना, ललित कलाएँ बताना, अंगविन्यास, अभिनय, विभ्रम इत्यादि स्वाभाविक अलंकार भोगभूमि की उन महिलाओं में भी होते हैं। वे शान्त, सौम्य, स्वतंत्र महिलाएं होती हैं; कलहकारिणी, स्वार्थी, क्रूर और चालाक नहीं। वे मध्ययुग की रानियों की तरह अन्तःपुर में या केवल घर की चारदीवारी में बंद हो कर नहीं रहती हैं। इसीलिए उनके लिए शास्त्रकार ने कहा -- 'नंदणवण विवरचारिणीओ व्व अच्छराओ ।' यानी वे नन्दनवन में विचरण करने वाली अप्सराओं की तरह स्वतंत्र विचरण करने वाली होती हैं। महिलाओं का वर्णन क्यों ?–अब प्रश्न यह होता है कि इस सूत्रपाठ में भोगभूमि के केवल पुरुषों का ही वर्णन पर्याप्त था। इन महिलाओं का इतना विशद वर्णन करने का प्रयोजन क्या था ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि यह अब्रह्मचर्य का प्रकरण चल रहा है। और उसमें भी अब्रह्मसेवनकर्ताओं के निरूपण का प्रसंग है। अब्रह्मचर्य-सेवन का मूल आधार स्त्री है । यद्यपि स्त्री और पुरुष दोनों के संयोग से अब्रह्मचर्य की निष्पत्ति होती है, तथापि अब्रह्मचर्य-सेवन का पहला और मूल कारण स्त्री है । स्त्री के रूपरंग, हाव-भाव, कटाक्ष, विलास, अंग-विन्यास और
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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