SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र होती है । श्रेष्ठ घोड़े के लिंग के समान उनका गुप्तांग - मूत्रेन्द्रिय निष्पन्न होता है और आकीर्ण ( उत्तम जाति के ) घोड़े के समान मलद्वार मल के लेप से रहित होता है । बाहर उनकी कमर हृष्ट पुष्ट घोड़े और सिंह की कमर से भी बढ़कर गोल होती है, उनकी नाभि गंगानदी के भंवर के समान, दक्षिणावर्त्त लहरों की परम्परा जैसी, सूर्य की किरणों से विकसित व कोश से. निकले हुए कमल के समान गम्भीर और विशाल है । समेटी हुई तिपाई या सिकुड़ी हुई दतौन की लकड़ी, मूसल और मूष में शोधे हुए श्रेष्ठ तप्त सोने की बनी हुई मूठ के समान और उत्तम वज्र के समान पतला उनका मध्यभाग होता है । उनकी रोमराजि सीधी, एक सरीखी, परस्पर सटी हुई, स्वभाव से बारीक, काली,चमकीली, सौभाग्यसूचक, मनोहर व अत्यंत कोमल तथा रमणीय होती है । उनका पार्श्वभाग - बगलें मछली और पक्षी की कुक्षि के समान पुष्ट और सुन्दर होता है । उनका पेट मछली के समान होता है । कमल के समान विशाल उनकी नाभि होती है । उनके पार्श्व प्रदेश नीचे की ओर झुके हुए होते हैं; संगत — जँचते हुए होते हैं, इसलिए उनके पार्श्व सुन्दर दिखाई देते हैं । यथा योग्य गुण वाले तथा परिमाण से युक्त, परिपुष्ट और रमणीय उनके पार्श्व होते हैं । उनकी पोठ और पार्श्वभाग की हड्डियाँ व पसलियाँ आदि मांस से ढकी होने से वे निर्मल, सुन्दर, पुष्ट और नीरोग शरीर से 'युक्त होते हैं । उनका वक्षःस्थल सोने की शिला के तल के समान मांगलिक, समतल, मांस से भरे हुए, पुष्ट, विशाल और नगर के फाटक समान चौड़ा होता है । उनकी कलाइयाँ ( कुहनी से नीचे का भाग) गाड़ी के जूवे के सदृश, यूप (खंभे) के समान, मांस से पुष्ट, रमणीय और मोटी होती हैं, तथा उनके शरीर की सन्धियाँ-जोड़ सुन्दर आकृति वाली, अच्छी तरह गठी हुई, मनोज्ञ, घनी, स्थिर, मोटी और अच्छी तरह बद्ध होती हैं। उनकी भुजाएँ महानगर के द्वार की भासै आगल के समान गोल होतीं हैं । तथा उनके बाहु शेषनाग आदि के विशाल शरीर के समान विस्तीर्ण और आदेय – रम्य तथा अपनी जगह से बाहर निकाली हुई आगल के समान लंबी होती हैं । उनके हाथ लाल-लाल हथेलियों से सुशोभित, मांस से पुष्ट, कोमल, उचित- जचते हुए तथा स्वस्तिक आदि लक्षणों के कारण प्रशस्त एवं सटी हुई उंगलियों वाले होते हैं। उनके हाथ की उ ंगलियाँ परिपुष्ट, सुरचित, कोमल और श्रेष्ठ होती हैं ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy