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________________ चतुर्थं अध्ययन : अब्रह्मचर्य आश्रव ३५३ वासना के आगे वे भी लाचार हो कर घुटने टेक देते हैं । काम के चेप से तो निःस्पृह त्यागी परमवीर साधु-महात्मा ही बचे हैं, जो कामिनी के संसर्ग से दूर रहते हैं । 'जलयर - थलयर - खहयरा' - देवों की अपेक्षा मनुष्यों के पास सुख-साधनों की कमी है । वैभव और शक्ति में भी मनुष्य देवों से बहुत पीछे हैं । फिर देवगण महाव्रत और अणुव्रत को स्वीकार नहीं कर सकते, जबकि मनुष्यगण इन दोनों को स्वीकार कर सकते हैं, बशर्ते कि चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम हो । इसलिए देवों की अपेक्षा मनुष्यों में अब्रह्मचर्य का प्रभाव अपेक्षाकृत कम है । यद्यपि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में कोई-कोई अणुव्रत तक ग्रहण कर सकते हैं, तथापि पंचेन्द्रिय - तिर्यंचों में कामवृत्ति का प्रभाव कम नहीं है । मध्यलोक में ज्योतिषी देव, मनुष्य और तिर्यंच तीन रहते हैं । इनमें से दो का वर्णन पहले किया जा चुका है । तिर्यंचगति के जीवों पर अब्रह्म का प्रभाव बताने लिए ही शास्त्रकार ने अब यह उल्लेख किया है । तिर्यंचगति के जीवों में पंचेन्द्रिय वही मैथुन सेवन कर सकते हैं । बाकी के एकेन्द्रिय से ले कर चार इन्द्रिय तक के जीव बाह्य मैथुनसेवन नहीं कर सकते । उनमें नपुंसकवेद के उदय से कामवासना 'अवश्य होती है । लेकिन बाह्यरूप में मैथुनसेवन करने की इन्द्रिय आदि सामग्री उनको उपलब्ध नहीं होती । इसलिए पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का ही तीन भागों में बांट कर निर्देश किया है । जलचर तिर्यंचपंचेन्द्रिय वे हैं, जो जल में ही जीवन धारण करके रहते हैं । जैसे - मछली, मगरमच्छ, घड़ियाल आदि । स्थलचर तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीव वे हैं, जो भूमि पर ही विचरण करते हैं । जैसे – गाय, बैल, घोड़ा, सिंह कुत्ता आदि । और खेचर तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीव वे हैं, जो आकाश में उड़ते हैं । जैसे - चिड़िया, कबूतर, बाज, चील आदि । ये तीनों प्रकार के पंचेन्द्रिय जीव अब्रह्मचर्य के पंजे में फंसे हुए हैं । कामवासना के निमित्त से इनमें परस्पर खूब लड़ाइयाँ होती हैं । कई दफा तो ये परस्पर लड़तेलड़ते अपनी जान तक गंवा बैठते हैं । प्रश्न होता है कि नरकगति में भी तो पंचेन्द्रिय नारकजीव हैं; क्या वे अब्रह्मचर्य के चक्कर से दूर हैं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार ने इस अध्ययन के प्रारम्भ में स्वरूपद्वार में ही बता दिया है कि अब्रह्मचर्य ने क्या स्वर्ग, क्या नरक, क्या मनुष्य और क्या तिर्यंच सभी पर अपना जादू चला रखा है । फिर नरक के जीव इस विकार से कैसे बच सकते हैं ? परन्तु एक बात यह है कि नरक के जीवों के पास केवल दुःखसामग्री ही है । वहाँ न तो इन्द्रिय-सुख है और न इन्द्रियविषयसुख के साधन हैं । २३ .
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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