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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
जाति के देवों को छोड़कर बाकी के नागकुमार आदि ६ प्रकार के भवनवासी देवों के भवन बने हुए हैं । उस खरभाग से नीचे ८४००० योजन चौड़ी पंकभागभूमि हैं, जहाँ असुरकुमार जाति के देवों के भवन बने हुए हैं ।
यद्यपि सब देवों की अवस्था आयुपर्यन्त पूर्ण यौवनावस्था के समान एक सरीखी रहती है, तथापि भवनवासी देव प्रायः विक्रिया द्वारा कुमारों के समान अपनी अवस्था बना लेते हैं और कुमारों की तरह ही चमकीले वस्त्र, कड़े, कुंडल, हार और मुकुट आदि आभूषण पहने रहते हैं एवं बालकवत् विविध क्रीड़ाएँ करते हैं; इसलिए इनके जातीय नाम के आगे 'कुमार' शब्द लगाया जाता है ।
व्यन्तरदेव और उनका निवास - विविध देशान्तरों में इनके निवास हैं, इसलिए इन्हें व्यन्तर कहा जाता है । रत्नप्रभा पृथ्वी का जो प्रथम भाग एक हजार योजन का है; उसमें से ऊपर और नीचे का सौ-सौ योजन छोड़ कर बाकी का जो ८०० योजन का टुकड़ा है, उसके तिर्यग्भाग में व्यन्तरों के असंख्यात नगर हैं ।
इसके अतिरिक्त इनका एक नाम 'वाणव्यन्तर' भी है; जिसका अर्थ होता हैवनों में रहने वाले व्यन्तर । जो नीची जाति के यक्षादि व्यन्तर देव हैं, वे प्रायः वनों में, पर्वतों की गुफाओं में, पेड़ों में, वृक्षों के कोटरों में, विविध जलाशयों या प्राकृतिक दृश्यों वाले स्थानों, बगीचों और शून्यगृहों में रहते हैं ।
' तिरिय- जोइस - विमाणवासि मणुयगणा - मध्यलोक के ज्योतिषदेव भी अब्रह्मचर्य सेवन में पीछे नहीं हैं । ज्योतिषदेवों के ५ भेद हैं—सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारे । इनमें से सूर्य और चन्द्र ज्योतिषदेवों के इन्द्र होते है । सूर्यदेव के ४ अग्रमहिषी देवियाँ होती हैं; जो प्रत्येक विक्रिया करके अपने चार चार हजार रूप बना सकती हैं । उनके साथ सूर्य दिव्यसुख का अनुभव करते हैं । चन्द्रमा के भी ४ अग्रमहिषी देवियां होती हैं; वे भी हर एक विक्रिया द्वारा अपने चार-चार हजार रूप बदल सकती हैं । इनके साथ चन्द्रमा भी दिव्यसुख का अनुभव करते है। पांचों प्रकार के ज्योतिषदेव ढाई द्वीप पर्यन्त निरन्तर गमन करते रहते हैं, आगे नहीं । इस भूमि के समतल भाग से लेकर ११० योजन आकाशक्षेत्र में कुल ज्योतिषदेवों के विमान हैं । इसके बाद शास्त्रकार ने मनुष्यगति के स्त्रीपुरुषों में भी अब्रह्मचर्य का प्रभाव बताया है । मनुष्यों में बड़े-बड़े शूरवीर योद्धा भयंकर युद्धों में अपना जौहर दिखा सकते हैं, वे मतवाले हाथियों के मस्तकों को अपनी तलवार के एक प्रहार से टुकड़े टुकड़े कर सकते हैं, बड़े-बड़े दुर्दान्त सिंहों का शिकार कर सकते हैं, लेकिन काम
१ इसका विस्तृत वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद में देखो ।
-संपादक