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________________ ३४६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र जिनका कोश-खजाना अत्यन्त समृद्ध-परिपूर्ण है, (चाउरता) तीनों ओर समुद्र और चौथी ओर हिमवान पर्वत तक जिनके राज्य का अन्त है, सीमा है । (चाउराहि सेणाहिं समणुजातिज्जमाणमग्गा) हाथी, घोड़े, रथ और पैदल-ये चारों प्रकार की सेनाएँ जिनके मार्ग का अनुगमन करती हैं, अर्थात् जिनकी आज्ञा में हैं । (तुरगवती गयवती रहवती नरवती) वे घोड़ों के स्वामी हैं, हाथियों के मालिक हैं, रथों के स्वामी हैं तथा मनुष्यों के भी अधिपति हैं, (विपुलकुलवीसुयजसा) जिनका कुल बड़ा विशाल है और यश भी दूर-दूर तक फैला हुआ प्रसिद्ध है, (सारयससिसकलवयणा) जिनका मुख शरत्काल के सोलहकलाओं सहित–पूर्ण चन्द्रमा के समान है, (सूरा) शुरवीर हैं, (तेलोक्कनिग्गयपभावलद्धसद्दा) जिनका प्रभाव तीनों लोकों में प्रसिद्ध है और जो सर्वत्र जयजयकार पाये हुए हैं, (समत्तभरहाहिवा) जो सारे भरतक्षेत्र के अधिपति हैं, (धीरा) जो धीर हैं, (जियसत्त) जिन्होंने अपने दुश्मनों को जीत लिया है, (पवर राजसीहा) बड़े-बड़े राजाओं में जो सिंह के समान हैं, (पुव्वकडतवप्पभावा) वे अपने पूर्वजन्मों में कृत तप से प्रभावशाली हैं, (निविट्ठसंचियसुहा) वे संचित पुष्ट सुख को भोगने वाले हैं, (अणेगवाससयमायुवंतो) सैकड़ों वर्षों की आयु वाले (नरिंदा) चक्रवर्ती नरेन्द्र (ससेलवणकाणणं) पर्वतों, वनों और उद्यानों से सहित, (हिमवंतसागरंत) उत्तर में हिमवान पर्वत और तीनों दिशाओं में समुद्रपर्यन्त, (भरहवास) भरतक्षेत्र-भारतवर्ष को, (भुत्तू ण) भोग कर—भारत के राज्य का उपभोग करके, (य) तथा (जणवयप्पहाणाहिं भज्जाहि) जनपद-देश में सर्वश्रेष्ठ और नामी पत्नियों के साथ (लालियंता) भोगविलास करते हुए (अतुलसद्दफरिसरसरूवगंधे अणुभनेत्ता) अनुपम अद्वितीय शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध सम्बन्धी विषयों का अनुभव करके (ते वि) ने भी (कामाणं अवितित्ता) कामभोगों से अतृप्त हो कर या तृप्त न हुए और (मरणधम्म उवणमंति) मरणधर्म को, मृत्यु को पाते हैं । मूलार्थ-जिनकी बुद्धि मोह से मोहित हो रही है,ऐसे देव अपनी देवियोंअप्सराओं के साथ उस मैथुन का सेवन करते हैं । वे देव निम्नोक्त हैं - असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्ण (गरुड़)-कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, दिशाकुमार पवनकुमार और स्तनित-मेघकुमार। ये दस भेद भवनवासी देवों के हैं। अणपन्निक, पणपन्निक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित,कूष्मांड और पतंग -ये आठ भेद उच्चजाति के व्यन्तरदेवों के हैं। पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व, ये आठ
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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