SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्ययन : अदत्तादान - आश्रव ही उसकी अगाध जलराशि है, जो अनन्त और अपार है । वह महाभयजनक हैं, भयंकर है और प्रत्येक प्राणियों में परस्पर प्रतिभय पैदा करने वाला है । बड़ी-बड़ी असीम इच्छाओं और मलिन बुद्धियों रूपी हवाओं के तूफान से उत्पन्न हुए तथा आशा (अप्राप्त अर्थ की सम्भावना) और पिपासा ( प्राप्त अर्थ को भोगने की इच्छा ) रूपी पाताल (समुद्रतल) से उठते हुए काम रति ( शब्दादि विषयों में आसक्ति) तथा रागद्वेषरूपी बन्धन के नाना संकल्प ही उस संसार समुद्र के जलकण हैं; जो अपने तीव्र वेग से उसे अन्धकारमय बना रहे हैं । इस संसारसागर के मोहरूपी भंवर में बहुत-से प्राणी गोते लगा रहे हैं; कई प्राणी उसमें भोगरूपी गोल चक्कर लगाते हुए व्याकुल हो रहे हैं, उछल रहे हैं, बहुत से मध्यभाग में डूबते-उतराते हैं । इस संसारसागर में इधर-उधर दौड़ते हुए नाना व्यसनों से घिरे हुए व्यसनी लोगों का प्रचंड 'वायु के थपेड़ों से टकराता हुआ, तथा अमनोज्ञ लहरों से विक्षुब्ध एवं तरंगों से फूटता हुआ तथा अस्थिर बड़ी-बड़ी कल्लोलों से व्याप्त रुदनरूप जल बह रहा है । यह प्रमाद 'रूपी अत्यन्त रौद्र व हिंसक जन्तुओं से सताए जाते हुए तथा नाना प्रकार की चेष्टाओं के लिए उठते हुए मनुष्यादि या मत्स्यादि प्राणियों के दल को विध्वंस करने वाले घोर अनर्थों से भरा है । इसमें अज्ञानरूपी बड़े-बड़े शीघ्रगामी भीम मच्छ फिर रहे हैं । अनुपशान्त इन्द्रियों वाले जीव ही इसमें मगरमच्छ हैं, जिनकी शीघ्र चेष्टाओं - उथल-पुथलों से यह अत्यन्त चंचल हो रहा है । इसमें वाडवाग्नि की तरह शोकादि का नित्य संताप है, इसमें चलायमान और अत्यन्त चंचल तथा सुरक्षाहीन, शरणरहित, पूर्वकृत कर्मों को इकट्टे किए हु प्राणियों को उनका फल भुगवाने के लिए आए हुए सैकड़ों दुःखों के रूप में कर्मफल ही घूमता हुआ जल समूह है। ऋद्धि (वैभव ), रस ( स्वादिष्ट पदार्थ ) और साता ( सुखसाधन) के गौरव - अहंकार रूपी अपहार ( हिंसक जलजन्तु ) से पकड़े गए व कर्मबन्धनों से बंधे हुए प्राणी खींच कर नरक रूपी पाताल (समुद्रतल) की ओर लाये जाते हैं; तब वे अत्यन्त खेद और विषाद से युक्त होते हैं; ऐसे विषण्ण व खिन्न जीवों से यह भरा है । यह अरति, रति, भय, विषाद, दैन्य, शोक और मिथ्यात्व रूपी पहाड़ों से विषम बना हुआ है । अनादि सन्तान वाले कर्मबन्धन तथा रागादिक्लेश रूपी कीचड़ से भरा होने से इसे पार किया जाना अत्यन्त कठिन है । देवगति, मनुष्यगति, तियंचगति और नरकगति में गमनरूपी टेढ़ी-मेढ़ी घूमने वाली इसकी विस्तीर्ण बेला है । हिंसा, ३०६
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy