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________________ ३०८. श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र वहां से आयुष्य पूर्ण कर निकलने के बाद फिर वे तिर्यंचयोनि में पहुँचते हैं । वहाँ भी वे नरक के समान वेदना का अनुभव करते हैं। अनन्तकाल बीत जाने के बाद यदि किसी तरह वे मनुष्यजन्म पाते भी हैं, तो भी अनेक बार नरकगति में गमन और तिर्यंचगति में लाखों चक्कर हो जाने के बाद । घूमघाम कर किसी तरह मनुष्य भव में भी वे नीचकुल में ही उत्पन्न होते हैं,और अनार्य- म्लेच्छ-धर्मसंस्कारों से रहित होते हैं । संयोगवश यदि आर्यजनों में जन्म भी ले लिया, तो भी वे अपने गंदे आचरणों के कारण लोगों से बहिष्कृत होते हैं, पशुओं की-सी जिंदगी बिताते हैं, विवेक-विचार से हीन मूढ़ होते हैं; वे केवल कामभोगों की ही लालसा में रचे-पचे रहते हैं । नरक गति में अनेकों जन्म-मरण करने के कारण पूर्वसंस्कारवश पुनः उसी नरकगमन के योग्य पापकर्मयुक्त प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं और संसार-जन्ममरण के चक्र—में परिभ्रमण और दुःखों के मूल कारण अशुभकर्मों का फिर बन्ध करते हैं। वे धर्मशास्त्र के श्रवण और ज्ञान से वंचित रहते हैं, इस कारण वे श्रेष्ठ आचरणों से दूर हिंसावृत्ति में मग्न रह कर क्रूर होते जाते हैं । मिथ्यात्व के प्रतिपादक शास्त्रों का ज्ञान पाने से एकान्तरूप से दण्डशक्ति-हिंसा के के कामों में ही उनकी रुचि होती है । इस प्रकार रेशम के कीड़े के समान. . अष्टकर्मरूपी तन्तुओं के गाढ़ बन्धन से वे अपनी आत्मा को जकड़ लेते हैं और उग्र त्रास से संतप्त, कर्तव्यशून्य एवं भयादि संज्ञाओं से युक्त होकर वे दिशामूढ़ मानव सदा के लिए संसारसमुद्र में ही अपना निवास कर लेते हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतियों में गमन करना ही जिस संसारसागर की बाह्य परिधि है । जन्म, जरा और मृत्यु के कारण होने वाला गंभीर दुःख ही जिस संसार सागर का क्षुब्ध प्रचुर जल है। उसमें संयोगवियोग रूपी लहरें हैं, निरन्तर चिन्ता ही उसका फैलाव है। परस्पर वध, बन्धन ही जिसमें लंबी चौड़ी कल्लोलें हैं; करुण विलाप और लोभ की कलकल ध्वनि की प्रचुरता ही उस की घोर गर्जना है। उसमें अपमानरूपी फेन है । घोर निन्दा एवं बार-बार पैदा हुई बीमारी और वेदना, बारबार होने वाला तिरस्कार, नीचे गिरते जाने का क्रम, कठोर झिड़कियाँ, डांटफटकार आदि जिनसे प्राप्त होती हैं ऐसे कर्म-रूपी कठिन पत्थरों से उठी हई तरंगों के समान सदा मृत्य की भीति ही इस समुद्र के जल की सतह है । यह कषायरूपी पाताकलशों से व्याप्त है। हजारों प्रकार की भीतियाँ (भय)
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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