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________________ २६० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र शरीर पर चुभोते हैं, कभी से बांध देते हैं ; कभी तपी हुई लोहे की सलाइयाँ उनके गर्मागर्म सूइयाँ उनके अंगों में भोंकते हैं; कभी वसूले से काठ के समान उनके शरीर की चमड़ी छीलते हैं ; कभी उनके घावों पर नमक आदि खारे पदार्थ छिड़कते हैं, लालमिर्च आदि तीखे पदार्थ उनके गुप्त अंगों में डालते हैं, कभी नीम आदि कड़वे पदार्थ उन्हें खिलाते हैं । कई कैदियों की छाती पर बड़ा भारी काठ रख कर उसे बहुत जोर से दबाते हैं; जिससे उनकी हड्डी -पसली सब चूर-चूर हो जाती है । कभी मछली को पकड़ने के लोहे के कांटे के समान नोकदार लोहे के काले डंडे को छाती, पेट, गुदा और पीठ में ठोक कर भयंकर त्रास पहुंचाते हैं । इस प्रकार जेल के आज्ञापालक सेवक अपने अधिकारियों का हुक्म पाते ही विविध प्रकार की यातनाएँ दे कर कैदियों के अंग-प्रत्यंगों को अत्यन्त जर्जरित कर देते हैं । इससे उनके हृदय को बड़ा आघात पहुंचता है । लगता है; कभी लातों. जेल के कई सिपाही तो इतने क्रूर और अकारणद्वेषी होते हैं कि किसी कैदी का इतना भयंकर अपराध न हो, तो भी यमदूतों के समान अत्यन्त क्रूर बन कर वे उन अभागे कैदियों के मुंह थप्पड़ों के मारे लाल कर देते हैं; लोहे के कुश से उनके शरीर की हड्डियाँ तोड़ डालते हैं; घोड़े आदि को पीटने के चाबुकों से मार-मार कर उनकी पीठ सूजा देते हैं, जिससे उनके शरीर से खून टपकने और घूंसों की चोट से मर्मस्थानों को व्यथित कर देते हैं; कभी चमड़े की मोटी रस्सी से सारे शरीर को बांध कर उन्हें नीचे लुढ़का देते हैं और ऊपर से बेंतें मार कर अधमरे कर देते हैं । उनके शरीर पर इतने घाव हो जाते हैं कि उनकी चमड़ी लटकने लगती है, उसमें से खून बहने लगता है । इतनी असह्य वेदना होती है, जो शब्दों से नहीं कही जा सकती । लोहे के बड़े-बड़े हथौड़ों से कूट कर बनाई हुई मजबूत बेड़ियों और हथकड़ियों से उनके हाथ-पैर जकड़ दिये जाते हैं । बेड़ियों के कारण वे इधर-उधर चल नहीं सकते । यातनाएँ देने पर मुंह से बोल भी नहीं सकते। बोलने पर और ज्यादा मार पड़ती है । इस प्रकार जेल के कर्मचारियों द्वारा पराये धन पर हाथ साफ करने वाले पापी चोर नाना प्रकार की असह्य यातनाएँ पाते हैं । - प्रश्न यह होता है कि चोर स्वयं भी जानते 'अतिंदिया धणतोसगा गहिया य जे नरगणा'जेल में कितनी भयंकर यातनाएँ चोरों को दी जाती हैं; हैं, फिर भी वे बार-बार चोरी के इस निन्दनीय मार्ग को क्यों अपनाते हैं ? अपनी अमूल्य जिंदगी को जानबूझ कर ऐसी आफत में क्यों डालते हैं ? वे ईमानदारी और स्वपरिश्रम से अर्थप्राप्ति का निरापद रास्ता क्यों नहीं अपनाते ? इसी बात का उत्तर शास्त्रकार 'अदतिंदिया' आदि पदों से देते हैं । वस्तुतः जास्त्रकार
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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