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________________ २६८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र को मोल लेना साहसिकों का ही काम है । वैसे तो साहस वीर का गुण है; किन्तु उसी साहस का उपयोग जब चोरी सरीखे अनर्थकारी कार्यों में किया जाता है तो वह दुर्गुण बन जाता है। बल्कि ऐसे कुमार्ग में साहस का उपयोग करने वाले को सहायक कम मिलते हैं; कदाचित् मिल भी जाय तो आफत आने पर उससे किनारा - कस कर लेते हैं । आखिरकार उसे अकेले ही खतरे का सामना करना पड़ता है और कारावास या प्राणदण्ड अकेले को ही भोगना पड़ता है; जबकि सन्मार्ग में साहस करने वाले को अनेकों सहायक भी प्रायः मिल जाते हैं, उसकी यशकीर्ति भी चन्द्रमा की चांदनी की तरह फैल जाती है । धर्मकार्य में साहस करने वाले की आत्मा बलवान् बन जाती है, जबकि पापकार्य में साहस करने वाले की आत्मा निर्बल, भयभीत और कायर बन जाती है । वह साहस अधिक दिनों तक नहीं टिकता । हुस्सा – चोरी करने वाले की आत्मा अत्यन्त तुच्छ होती है । जो चोरी करता है, उसे संसार तुच्छ दृष्टि से देखता है । उसकी कीर्ति नष्ट हो जाती है । लंकाधीश रावण ने महासती सीता का अपहरण किया। इसके फलस्वरूप उसका यश नष्ट हो गया । उसकी विद्वत्ता, प्रभुता और सत्ता सभी धूल में मिल गई । उसकी आत्मा का पतन हुआ । व्यक्ति चाहे जितने ऊँचे पद पर पहुंचा हुआ हो, ऐश्वर्यशाली हो, प्रभुत्वसम्पन्न हो, किन्तु चोरी जैसे दुष्कृत्य को करने से उसकी प्रभुता, ऐश्वर्य - सम्पन्नता और विद्वत्ता मिट्टी में मिल जायगी, उसकी आत्मा का पतन हो जायगा । फलतः उसकी आत्मशक्ति क्षीण हो जायगी । अतिमहच्छलोभगच्छा - जिनकी इच्छाएं बहुत बढ़ जाती हैं, तथा जो लोभरूपी पिशाच से ग्रस्त हो जाते हैं, वे चोरी करते हैं । इस पद से चोरी करने के मूल कारण को भी प्रगट कर दिया गया है । वास्तव में अतिलोभ या अतिलालसा ही चोरी का मूल कारण है । जब मनुष्य अपने मन में बड़ी-बड़ी आशाएँ व लालसाएँ संजोता है, मनसूबे बांधता है, बड़ी-बड़ी इच्छाएँ करता है, या धनवृद्धि की अभिलाषा करता है, तभी उनकी पूर्ति के लिए वह पराये धन पर या पराई वस्तु पर हाथ साफ करता है । धन का लोभ बड़ों-बड़ों को चोरी सरीखे अनर्थकारी कार्य में प्रेरित करता है । धन के लोभ से ही डाकू डाका डालते हैं, लुटेरे अपनी जान को जोखिम में डाल कर लूटमार करते हैं। धन के लोभ से ही व्यापारी व्यवसाय में तरह-तरह से चोरी करते हैं । धन के लोभ से ही राजा लोग दूसरे के राज्य को छीन कर अपने कब्जे में करने का प्रयत्न करते हैं । सरकारी कर्मचारी या अधिकारी धन के लोभ में आ कर रिश्वत लेते हैं, कार्य करने में चोरी करते हैं और गबन आदि करते हैं । भ्रष्टाचार, तस्करव्यापार, करचोरी आदि सब अनर्थों का मूल धनलोभ है । इसीलिए लोभ को पाप का बाप कहा गया है । I
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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