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________________ २६६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र के कारण पापकर्म करने वाले एवं अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं, तथा दुःख के भागी बनते हैं। उनके मन हमेशा दुःखाक्रान्त व अशान्त रहते हैं । वे परधन हरण करने वाले मनुष्य इस लोक में ही सैकड़ों संकटों से घिरे हुए क्लेश पाते रहते हैं। व्याख्या प्रस्तुत सूत्रपाठ द्वारा शास्त्रकार ने, अदत्तादान करने वाले कौन-कौन होते होते हैं ? तथा वे चोरी करने के लिए किन-किन भयंकर तरीकों का आश्रय लेते हैं ? इसका विशद विवेचन किया है। मूलार्थ में इसका स्पष्ट अर्थ किया गया है, जो अनायास ही समझ में आ सकता है । फिर भी कुछ पदों का विवेचन और विश्लेषण करना आवश्यक समझ कर किया जा रहा है तं पुण करेंति चोरियं-उस चोरी को करते हैं-तस्कर, परद्रव्यहारक आदि दुर्जन। चोरी का जन्म सर्वप्रथम मन में होता है । मनुष्य के मन में पहले दूसरे की अच्छी वस्तु देख कर या अपने पास उस वस्तु का अभाव होने से दूसरे के यहाँ उस वस्तु की प्रचुरता देख कर उसे किसी भी तरह से प्राप्त कर लेने का लोभ और फिर क्रमश: इच्छा, लालसा, तृष्णा और आसक्ति पैदा होती है। उसके बाद वह अपने मन में उस वस्तु को प्राप्त करने के उपायों का चिन्तन करता है, योजना बनाता है । उस वस्तु की प्राप्ति में कौन-कौन-सी रुकावटें आ सकती हैं ? कौन-कौन-से खतरे उठाने पड़ सकते हैं ? किन-किन साधनों का आश्रय लेना पडेगा ? किन-किन सहायकों को साथ में लेना होगा ? इत्यादि विविध तरीकों और तरकीबों को अजमाता है। बार-बार उन तरीकों और उपायों को अजमा लेने के बाद वह चौर्यकला में दक्ष और साहसिक बन जाता है, तब बेखटके चोरी करने लग जाता है। कुछ लोग स्वयं चोरी नहीं करते, किन्तु कुछ साहसी व्यक्तियों को अपने यहाँ रख कर या अमुक हिस्सा देने का लोभ दे कर उनसे चोरी करवाते हैं। कुछ लोग चोरी का माल खरीद लेने का वादा करके चोरों को चोरी करने के लिए प्रोत्साहन देते हैं,वे उनकी चोरी के विरुद्ध कुछ भी नहीं कहते, अपितु गुप्त रूप से उस चोरी का समर्थन करते रहते हैं । कुछ लोग चोरी करने के विविध उपाय बताते हैं, चोरों के साथ साझेदारी में व्यवसाय करते हैं, उन्हें चोरी करने के लिए शस्त्र-अस्त्र आदि साधनों की गुप्त रूप से सहायता करते हैं। कुछ लोग व्यवसाय में चोरी करते हैं, वे अच्छी वस्तु दिखा कर घटिया दे देते हैं, तोल-नाप में गड़बड़ करते हैं, वस्तु में मिलावट करते हैं, झूठी सौगन्ध खा कर ग्राहक को ठग लेते हैं, अत्यधिक मूल्य या दर पर बेचते हैं ; सरकार के द्वारा निश्चित करों की चोरी करते हैं, बहीखाते में
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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