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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र वना और भय पैदा करने वाला है, जो प्रतिक्षण भयप्रद है, अत्यन्त उद्वेग पैदा करने वाला है, जिसके आर-पार का कोई पता नहीं लगता, जो आकाश के समान आलम्बन-रहित है, उत्पातजनित वायु से प्रेरित (चलाई हुई) एक के बाद दूसरी गर्व से इठलाती हुई लहरों के वेग से जो दृष्टिपथ को ढक देता है । कहीं पर गंभीर मेघगर्जना जैसी गूजती हुई, व्यन्तरकृत महाध्वनि के सदृश, तथा उससे उत्पन्न होकर दूर तक सुनाई देने वाली प्रतिध्वनि के समान गंभीर और धुग् धुग् करती हुई आवाज जिसमें हो रही है । जो प्रत्येक रास्ते में रुकावट डालने वाले यक्ष, राक्षस, कुष्माण्ड और पिशाच जातीय कुपित हुए व्यन्तरदेवों द्वारा जनित हजारों उपसर्गों से व्याप्त है; जो बहुत-से उपद्रवों से भरा हुआ है, जो बलि, होम और धप दे कर की गई देवता की पूजा और रुधिर दे कर की गई अर्चना में प्रयत्नशील अपने सामुद्रिक व्यापार में रत जहाजी व्यापारियों से सेवित है, जो कलि-काल (अन्तिम युग) के अन्त यानी प्रलयकाल के कल्प के समान है, जिसका अन्त पाना कठिन है, जो गंगा आदि महानदियों का नदीपति होने से दिखने में अत्यन्त भयंकर है; जिसका सेवन कठिनाई से किया जा सकता है या जिसमें चलना बहुत ही दुष्कर है, जिसमें प्रवेश पाना (पानी से लबालब भरा होने से) बहुत ही कठिन है. जिसका पार, करना दुष्कर है, जिसका आश्रय लेना भी दुःखयुक्त है, जो खारे पानी से भरा हुआ है, ऐसे रत्नाकर सागर में ऊँचे किये हुए काले और सफेद झंडों वाले, अति शीघ्रगामी तेज पतवारों वाले जहाजों द्वारा आक्रमण करके समुद्र के बीचोंबीच जा कर वे सामुद्रिक व्यापारियों के जहाजों को नष्ट कर देते हैं। . पराये धन को चुराने वाले लोग निर्दय एवं परलोक की जरा भी परवाह न करने वाले होते हैं । वे धन से समृद्ध गांवों, नगरों, खेड़ों, खानों, कस्बों, चार योजन के अन्तर्गत गाँवों से घिरे हुए मडम्बों, बंदरगाहों, बंदरगाह के समीपवर्ती नगरों-जहाँ जल-स्थल दोनों मार्ग हों, आश्रमों, मठों, व्यापारी मंडियों एवं जनपदों को नष्ट कर देते हैं। वे अत्यन्त मजबूत दिल के या निहितस्वार्थी होते हैं, निर्लज्ज होते हैं, वे लोगों के बंदी बना कर या गाय आदि को पकड़ कर ले जाते हैं । ऐसे कठोर बुद्धि वाले, निर्दय या निकम्मे लोग अपना या अपनों का (एक न एक दिन) घात करते हैं, घरों में सेंध
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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