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________________ २५८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र की संधि को (छिदंति) तोड़ते हैं यानी सेंध लगाते हैं (य) और जो (परस्स) दूसरे के, (दव्वाहि) द्रव्यों से (अविरया) अविरत-निवृत्त नहीं हैं, वे (निग्घिणमती) दयाहीन बुद्धिवाले, (जणवयकुलाणं) देशवासी लोगों के घरो में, (निक्खित्ताणि) रखे हुए, (धणधन्नदव्वजायाणि) धन, धान्य और अन्य द्रव्यसमूह को (हरंति) चुराते हैं । (तहेव) इसी प्रकार, (केई) कितने ही, (अदिन्नादाणं) चोरी की (गवेसमाणा) खोज करते हुए (कालाकालेसु) समय-असमय में (संचरंता) घूमते हुए (चियका-पज्जलियसरस-दरदड्ढ कड्ढिय-कलेवरे) जहाँ चिताओं में जलती हुई, रुधिरादि से युक्त, थोड़ी जली हुई व खींची हुई लाशें पड़ी हैं, (रुहिरलित्त-वयण-अखत-खातिय-पीतडाइणीभमंत-भयंकरे) तथा खून से लथपथ मृतशरीरों को पूरा खाने और खून पी लेने के बाद घूमती हुई डाकिनियों से जो अतीव भयंकर हो रहा है, (जंबुयखिक्खियंते) जहाँ गीदड़ खी खी आवाज कर रहे हैं, (घूयकयघोरसद्दे) जहाँ उल्लू भयंकर आवाज कर रहे हैं, (वियालुटिठ्य - निसुद्ध - कह - कहित-पहसित-बोहणक-निरभिरामे) भयंकर विद्प पिशाचों द्वारा ठहाका मार कर हंसने से जो अत्यन्त भयावना और अरमणीय हो रहा है, (अतिदुन्भिगंध-बीभच्छदरिसणिज्जे) अत्यन्त बदबूदार और घिनौना होने से देखने में डरावने (सुसाणे) श्मशान में तथा (वण-सुन्नघर-लेणअंतरावण-गिरिकंदर-विसम-सावय-समाकुलासु) वन में, सूने घरों, में मार्ग पर बनी हुई दूकानों, पर्वतों की गुफाओं, ऊबड़ खाबड़ जगहों तथा सिंह आदि हिंसक जानवरों से घिरी हुई (वसतीसु) जगहों में राजदण्ड आदि से बचने के लिए, (किलिस्संता) क्लेश पाते हुए भटकते हैं, (सीतातपसोसियसरीरा) उनके शरीर की चमड़ी ठंड और गर्मी से सूख जाती है, (दड्ढच्छवी) वह रूखी हो कर जल जाती है, (निरयतिरियभवसंकड-दुक्खसंभार वेयणिज्जाणि पावकम्माणि संचिणंता) जिनसे नरक और तिर्यञ्च की भवपरम्पराओं में सतत दुःखों को भोगना पड़ता है,ऐसे पापकर्मों का संचय करते हैं (दुल्लह-भक्खन्न-पाणभोयणा) उन्हें चोरी का दुष्कर्म करते हुए मोदक आदि भक्ष्य पदार्थों,चावल, गेहूँ आदि अनाजों, दूध आदि पेयपदार्थों का भोजन मिलना दुर्लभ होता है (पिवासिया) प्यासे, (झुझिया) भूखे, (किलंता) थके हुए (मंस-कुणिम-कंद-मूल-जंकिंचिय-कंयाहारा) मांस, मृत शरीर, कंद, मूल या जो भी चीज मिल जाय उसी को उन्हें खाना पड़ता है, (उन्विग्गा) रातदिन उद्विग्न-भयभीत-रहते हैं, (उप्पुया) वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर दौड़ते-भागते रहते हैं अथवा (उस्सुया) हर समय उत्सुक याने चौकन्न रहते हैं, (असरणा) कहीं पर उन्हें टिकने को शरण नहीं मिलती, अतएव (वालसतसंकणिज्जं) सैकड़ों संों के कारण हरदम शंकाजनक (अडवीवासं उति) अटवी में
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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