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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव २२५ को कौन जानता है ? इसका फल तो किसी ने कहीं देखा नहीं । इस भ्रमवश असत्य का प्रयोग बेखटके करता है । अथवा अदूरदर्शी मनुष्य असत्य के कटुफल की ओर न झांक कर इष्टपूर्ति या अनिष्ट का निवारण भी असत्य बोल कर करना चाहता है । अथवा धनवान या सत्तावान बनने की धुन में भावी में मिलने वाले असत्य के कड़वे फलों की ओर नजर नहीं जाती । या फिर संसार के असत्यवादी लोगों को धनसम्पन्न, ऐश्वर्यशाली या सत्ताधारी बने हुए तथा सत्यवादियों को निर्धन, फटेहाल या दुःखपूर्वक दिन बिताते देख कर भविष्य का विचार किए बिना झटपट असत्य का सहारा ले बैठता है । ऐसा व्यक्ति अपने मन को झूठे निर्णयों से आश्वस्त कर लेता है कि ‘असत्य, छल-कपट या फरेब से ही सांसारिक कार्य चलते हैं, धनाढ्य या सत्ताधारी बनने के लिए असत्य का ही आश्रय लेना चाहिए । इसी तरह कई बार किसी के भुलावे में आ कर मनुष्य असत्य की राह पर चल पड़ता है, भविष्य में उस असत्य के कटु फल भोगने पड़ेंगे, इस बात को वह उस समय भूल जाता है । कई बार चालाक आदमी यह सोचता है कि मैं ऐसी सिफ्त से असत्य बोलूंगा कि किसी को मेरे असत्य का पता तक नहीं चलेगा । ऐसे लोग भी असत्य के फल भोग का जरा भी विचार नहीं करते । कई लोग यशकीर्ति या समाज में प्रतिष्ठा पाने के नशे में दूसरों की खोटी आलोचना, निन्दा या चुगली करते हैं । इस प्रकार असत्य की शरण लेने में वे नतीजे को आँखों से ओझल कर देते हैं । वे यह नहीं सोचते कि धन, सत्ता या यश, सुख, लाभ और इनका उपभोग तो सातावेदनीय के उदय से लाभान्तराय और उपभोगान्तराय कर्म के क्षयोपशम से ही हो सकता है । ये और इस प्रकार के विभिन्न कारणों से वस्तु - स्वरूप को न समझ कर तथा असत्यभाषण से अत्यन्त अशुभकर्म का बन्ध होने पर उसके उदय के समय आत्मा की कितनी बुरी हालत होगी, इस बात का विचार न करने वाले सभी मनुष्य फलविपाक से अनभिज्ञों की कोटि में आते हैं । नरक और तिर्यञ्चयोनि में असत्य का कुफलभोग — कई लोग यों समझ लेते हैं कि हिंसा के फल के बारे में बताते समय शास्त्रकार ने नरकभूमियों तथा नारकों दु:स्थिति का एवं उसके पश्चात् तिर्यञ्चगति की विविध योनियों का जितना वर्णन किया था, उतना असत्यभाषण का फल बताते समय नहीं किया, इसलिए इस आश्रव या अधर्म (पाप का इतना भयंकर फल नहीं होगा । परन्तु यह उनकी भ्रान्ति है । जिस बात का शास्त्रकार पहले वर्णन कर चुके हैं, उसे बार-बार न दोहरा कर सिर्फ संकेत कर देते हैं । यहाँ भी इस सूत्रपाठ में असत्यभाषण का फल बताते समय 'नरयतिरिक्खजोणि' कह कर उसके लिए कहा है - 'महन्भयं अविस्सामवेयणं, दीहकालं बहुदुक्खसंकर्ड' आदि । इसी से समझ लेना चाहिए कि असत्य का कटुफल भी नरकतिर्यञ्चयोनियों में बहुत लम्बे अर्से तक दुःख भोगना है । यहाँ नरक और तिर्यंच i १५
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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