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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
में थोड़े से सुख और बहुत से दुःखों वाला है; महाभयंकर है, अपार कर्मरज आत्मा को गाढ़ बंधन में बांधने वाला है, तीक्ष्ण और कठोर है, असाता पैदा करने वाला है; हजारों वर्षों में जा कर उससे पिंड छूटता है, उस दारुण दुःखद फल को भोगे बिना कदापि छुटकारा नहीं होता ।' इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन महात्मा (चार धातिकर्मों से रहित ) महावीर नामक जिनेन्द्रदेव ने असत्यभाषण के फलविपाक का वर्णन किया था; ऐसा गौतमादि गणधरों से कहा है ।
इस प्रकार वह असत्यभाषण तुच्छातितुच्छ एवं चंचल ( वाचाल ) मनुष्यों द्वारा बोला जाता है, यह भयंकर है, दुःखजनक है, अपयश ( बदनामी) कराने वाला है, वैर का उत्पादक है, चित्त में बेचैनी, विषयों में आसक्ति, मोह,द्व ेष, ममत्व और मन में संक्लेश पैदा करता है, यह अहितकर है, माया और धूर्तता से भरा है, जाति, कुल और कार्यों से नीच लोगों द्वारा ही सेवित है, घातक अथवा अप्रशंसित है, समस्त अविश्वासों का कारण है, उत्कृष्ट साधुओं द्वारा निन्दित है, दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाला है, परमकृष्णलेश्या से युक्त है, दुर्गतियों में पतन को बढ़ावा देने वाला है, संसार में पुनः पुनः जन्ममरण का कारण है, चिरकाल से परिचित अभ्यस्त है, निरन्तर आत्मा के पीछे-पीछे लगा रहने वाला है, अथवा भविष्य में भी आत्मा के साथ आने वाला है । इसका परिणाम अत्यन्त दुःखप्रद है ।
इस तरह दूसरा मृषावाद नाम का अधर्मद्वार सम्पूर्ण हुआ ।
व्याख्या
पूर्व सूत्रपाठ में असत्य बोलने वालों और साथ ही असत्य बोलने के कारणों पर विशद निरूपण करने के बाद शास्त्रकार इस सूत्रपाठ में असत्य के कटु फल किसकिस प्रकार से जीवों कों भोगने पड़ते हैं, उसका स्पष्ट वर्णन करते हैं । वर्णन बहुत ही स्पष्ट है, मूलार्थ में उसका अर्थ भी हम कर आए हैं, फिर भी कुछ बातों पर यहाँ प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं । अतः उन पर क्रमशः विवेचन कर रहे हैं
'अferee फलविवागं अयाणमाणा' - शास्त्रकार ने इस वाक्य से यह स्पष्ट कर दिया है कि असत्य भाषण वे ही करते हैं, जो असत्य के फल के बारे में नहीं जाते हैं, जो असत्य का स्वरूप और असत्य से हानि या कर्मबन्ध के कारण नहीं जानते या जानते हुए भी अजाने-से बने हुए हैं । धन, सत्ता, पद, उच्च जाति या उच्चकुल के गर्व में आ कर इस भ्रान्ति के कारण असत्य बोलते है कि मेरे असत्य को कौन जान पाएगा ? अथवा असत्य को बुरा मानते हुए भी पूर्व - संस्कारवश या मेरी असत्यवादिता