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________________ २१६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ इन पांचों कारणों में से एक-एक को ही एकान्त रूप से मानना मिथ्यात्व (असत्य) है और इन पाँचों को संयुक्तरूप से कारण मानना सम्यक्त्व (सत्य) है ! काल की प्रतीक्षा भी कार्य में आवश्यक है। उस कार्य में वैसा होने का स्वभाव भी होना चाहिए, अतः स्वभाव भी देखना पड़ता है । कई दफा दूसरे निमित्तों के मिलने पर भी कार्य नहीं होता या विलम्ब से होता है, वहां भवितव्यता (नियति) को मानना पड़ता है। कहीं-कहीं कालादि के अनुकूल होने पर भी पर्याप्त पुरुषार्थ, ईश्वरेच्छा, यदृच्छा या भाग्य प्रवल न होने से कार्य अनुकूल नहीं होता। इसलिए पांच-कारण मिल कर ही कार्य को सिद्ध कर सकते हैं, अकेले एक कारण से काम नहीं होता । जहाँ बुद्धिपूर्वक काम होता है, वहां पुरुषार्थ की प्रधानता है और जहाँ अबुद्धिपूर्वक कार्य होता है, वहाँ दैव आदि की प्रधानता है। इसलिए इन पाँचों में से एक पर ही जोर दे कर एकान्तरूप से उसी का प्ररूपण करना असत्यवाद है। पारमार्थिक धर्म की ओट में असत्यवादिता-बहुत से लोग अपना जीवन वैभव-विलास, आमोद-प्रमोद और खाने-पीने की तृप्ति में ही बिताते हैं। ऐसे लोग अपने असंयम पर धर्म की मुहरछाप लगाने के लिए इन बातों को ही धर्म का रूप दे बैठते हैं और संयम में प्रवृत्त करने वाली जो धर्म की बातें हैं, उनके पालन से । कतरा कर अपने सुकुमार जीवन की पुष्टि के लिए उन्हें ढोंग, मिथ्या,या पाखण्डकल्पित . आदि कह कर ठुकरा देते हैं। ऐसे लोग महान् असत्यवादी हैं , स्वपरवंचक भी हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं ‘एवं केइ जपंति इड्ढिरससायगारवपरा''धम्मवीमंसएण मोसं ।' परदोषारोपण करने वाले असत्यवादी–कई लोग स्वयं अपना जीवन सुधारने का प्रयत्न नहीं करते । वे प्रसिद्धि पाना, सत्ता हथियाना, पद प्राप्त करना, अथवा अपना कोई स्वार्थ साधना चाहते हैं। इसके लिए वे दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण कर, नीचा दिखा कर उसके प्रति जनता की श्रद्धा खत्म करके अपना उल्लू सीधा करते हैं । ऐसे लोग असत्यवादी तो हैं ही; दूसरों को मानसिक आघात पहुंचाने का प्राणवध सरीखा महापाप भी करते हैं । अथवा अपने दोषों को छिपाने के लिए वे दूसरों के के गले वे ही दोष मढ़ देते हैं, जिससे कि वे व्यक्ति कायल होकर दब जांय, उन्हें पाप से हटने के लिए कुछ कहने को मुंह न खोल सकें । वर्तमान राजनीतिज्ञों के जीवन में अकसर यह देखा जाता है कि वे शासकपक्ष की या एक दूसरे की भरपेट निन्दा करते हैं, खरी-खोटी आलोचना करके उसे गिराने की कोशिश करते हैं, झूठे दोषारोपण करते हैं। ऐसा करके वे शास्त्रकार की भाषा में "अहम्मओ रायदुळं अब्भक्खाणं
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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