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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव वृक्ष उगने की योग्यता होने पर भी पृथ्वी, जल आदि निमित्तों की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार कर्मों के फल भोगने के लिए निमित्तों की आवश्यकता है । चोरी करने पर चोर को चोरी के निमित्त से राजा आदि द्वारा दण्डित किया जा सकता है। वैसे ही आत्मा भी कर्मोदय के समय काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ की अपेक्षा रखता है। ये निमित्त कारण अदृश्य नहीं हैं, अपितु युक्तियुक्त और बुद्धिगम्य हैं । बीज को ठीक निमित्त मिलने पर वह फल आदि से युक्त हो जाता है, इसी प्रकार आत्मा भी पाँच निमित्तों (काल, स्वभाव आदि) के मिलने पर अपने कर्मों के शुभाशुभफल के अनुभव से युक्त हो जाता है । जैसे मदिरा मादक द्रव्य होने पर भी चेतन के संयोग होने या चेतन का निमित्त मिलने पर ही नशा चढ़ा कर अपना स्वरूप प्रगट करती है, जब तक शीशी आदि में पड़ी है, तब तक वह अपने स्वरूप को प्रगट नहीं करती ; वैसे ही जड़ कर्म और चेतन (आत्मा) दोनों का निमित्त ही कर्मफल देने में समर्थ है। कर्म अचेतन होते हुए भी जिस समय आत्मा अशुभ परिणामों से कोई प्रवृत्ति करता है उसी समय कर्मपुद्गल उसके चिपक जाते हैं, जो समय पर उदय में आ कर अवश्य ही स्वाभाविक रूप से अपना शुभाशुभ फल देते हैं, जिन्हें भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं मिलता। • उक्त युक्तियों से ईश्वरकर्तृत्वाद की असत्यता सिद्ध हो जाती है।
विण्हुमयं कसिणमेव य जगं ति केई'—कई दार्शनिक इस समस्त जगत् को विष्णुमय मानते हैं। संसार में सर्वत्र विष्णु व्यापक है । इस विषय में वे ये प्रमाण प्रस्तुत करते हैं
जले विष्णुः, स्थले विष्णुविष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ॥१॥ पृथिव्यामप्यहं पार्थ ! वायावग्नौ जलेऽस्म्यहम्।
सर्वभूतगतश्चाहं,१ तस्मात्सर्वगतोऽस्म्यहम् ॥२॥ . अर्थात्-‘जल में विष्णु है, स्थल में विष्णु है, पर्वत के मस्तक पर विष्णु है, ज्वालाओं (अग्नि की लपटों) के समूह से व्याप्त ज्वालामुखी पर्वत आदि में भी विष्णु है। इसलिए सारा जगत् विष्णुमय है।' 'हे अर्जुन ! मैं पृथ्वी में भी हूं; वायु, अग्नि
और जल में भी मैं हूं; समस्त प्राणियों में भी मैं हूं। अतः मैं सारे संसार में व्याप्त हूं।' इसी बात की पुष्टि के हेतु मार्कण्ड ऋषि की एक कथा है
१ 'वनस्पतिगतश्चाहं सर्वभूतगतोऽप्यहम्' यह पाठ भी कहीं-कहीं है। इसका अर्थ : है-"मैं वनस्पति में भी रहता हूं और सभी प्राणियों में भी मैं रहता हूं।"