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________________ २०२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र. हैं-सृष्टि के प्रारम्भ में जीव कर्मसहित थे या कर्मरहित ? यदि कहें कि वे कर्मसहित थे तो उन कर्मों को किसने बनाया ? यदि यह कहें कि वे कर्म तो उन-उन आत्माओं ने ही बनाएं हैं तो आपका कार्यरूप हेतु दूषित हो जाता है। आपका मानना है कि जितने भी कार्य होते हैं, वे सब ईश्वर के किये हुए होते हैं । यदि कहें कि उन कर्मों को भी ईश्वर ने बनाया, तब तो उसकी परम दयालुता पर बहुत बड़ा आक्षेप यह आता है कि ईश्वर ने उन शुद्ध और सुखी आत्माओं को व्यर्थ ही कर्मों से लिप्त बना कर अशुद्ध और दुःखी क्यों बना दिया ? क्या यही उसकी दयालुता है ? . ... यह मान भी लें कि ईश्वर ने सृष्टि के आदि में सुमार्ग पर गमन और कुमार्ग से रक्षण का उपदेश दे कर कर्म करने की स्वतन्त्रता दी, परन्तु वह ईश्वर सर्वज्ञ और परम दयालु पिता होते हुए भी अपने पुत्र जीव को बुरे मार्ग पर चलने से रोकता क्यों नहीं ; क्या यही उसकी दयालुता है ? एक पिता अपने प्रिय पुत्र को बुरे मार्ग पर चलते देख कर चुपचाप नहीं बैठता, वह उसे जरूर रोकता है ; तब परमपिता परमदयालु ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हो कर भी अपने प्रियपुत्रों को अन्यायमार्ग पर चलते हुए देख कर-जानकर भी उपेक्षा कैसे कर सकता है ? उस समय चुप्पी कैसे साध सकता है ? अतः उनका यह कथन भी सत्य से रहित है। न्यायाधीश या राजा की तरह जीवों को अपने कर्मों का फल देने के लिए ईश्वर की आवश्यकता बतलाई, वह विचार भी युक्तिहीन है । क्योंकि ईश्वर अरूपी और अशरीरी होने से कर्मयुक्त जीव को किस प्रकार फल देगा ? तथा न्यायाधीश भी जब तक अपराधी का अपराध सुन न ले और गवाहों आदि से पूछताछ व बहसमुवाहिसे, जिरह आदि द्वारा पक्का निर्णय न कर ले. तब तक उसे दण्ड देने को प्रस्तुत नहीं हो सकता। यही नहीं, कई बार साक्षियों की साक्षी कानून से विपरीत मिलने पर स्वयं अपराधी का अपराध जान लेने पर भी उस अपराधी को निर्दोष बरी कर देना पड़ता है। जैसे बहुत से अपराध प्रगट , होने पर अपराधी को किसी प्रकार का दण्ड नहीं मिलता; वैसे ही ईश्वर के सामने भी बहुत से अपराध सिद्ध न होने पर क्या अपराधी को कर्मों का फल नहीं भोगना पड़ेगा ? क्या ईश्वर के न्याय की भी यही दशा है ? ... ईश्वर को कर्मों के फल भुगवाने के पचड़े में डालने से उस पर पक्षपात, दयाहीनता, अविवेक आदि अनेक आक्षेप आते हैं। इसलिए उस निर्लेप, निरंजन, निर्विकार परमात्मा को कर्मफलदाता मानना युक्तिसंगत नहीं है। कर्मों का फल तो वे कर्म स्वयमेव आत्मा को भुगवाने में समर्थ हैं। जब आत्मा कर्म करता है, तभी कर्मों के उदय होने के निमित्तों को भी बाँध लेता है। उन्हीं निमित्तों के कारण प्रत्येक प्राणी अपने किये हुए कर्मों का फल अनायास ही पा लेता है। जिस प्रकार बीज में
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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