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________________ २०० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ज्ञान होना आवश्यक है,ताकि उन सबका यथायोग्य उपयोग किया जा सके । इस प्रकार सृष्टि का कर्ता ईश्वर ही सिद्ध होता है, जो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है । वही सबका गुरु और नित्य है। अज्ञ प्राणियों को अपने कर्मों के फल का ज्ञान नहीं होता। वे अच्छे बुरे कर्म करने में स्वतंत्र हैं, परन्तु उन कर्मों का फल क्या है ? उन्हें भोगने का कौन-सा स्थान है ? इत्यादि बातों का उन्हें ज्ञान नहीं है, इसलिए परमेश्वर उन्हें कर्म का फल भोगने के लिए स्वर्ग या नरक में भेजता है । कहा भी है 'अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥' अर्थात्-'यह अल्पज्ञ प्राणी अपने किये हुए कर्मों के जो सुख-दुःखरूप फल हैं, उन्हें जानने में असमर्थ है । अतः उन फलों को भोगने के लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित (भेजा गया) ही वह स्वर्ग या नरक में जाता है ।' उनका कहना है कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, लेकिन फल भोगने में परतन्त्र हैं। जैसे चोर चोरी तो कर लेता है, लेकिन उसका फल-कारावास आदि दण्ड नहीं भोगना चाहता। न्यायाधीश, राजा आदि उसे सजा सुनाते हैं और भोगने के लिए विवश करते हैं। वैसे ही यह संसारी जीव अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे कर्म कर लेता है। न्यायाधीश ईश्वर उसे उनका फल देता है । यदि उनसे कोई पूछे कि ईश्वर ने जानते हुए भी उसे बुरे कर्म क्यों करने दिये ? तो इसका उत्तर वे यों देते हैं कि ईश्वर ने तो उन्हें संसार में प्रवृत्ति करने के . लिए उत्तम मार्ग का उपदेश दिया और यह भी कहा कि इस मार्ग पर चलने से तुम्हारा हित होगा और इससे विपरीत मार्ग पर चलने पर तुम्हें दण्डित किया जाएगा। इस प्रकार समझा कर ईश्वर ने उसे कार्य करने की स्वतन्त्रता दे दी। यदि वह प्राणी भला काम करता है तो ईश्वर उसे अच्छा फल स्वर्ग आदि देता है और यदि वह दुराचार आदि बुरे काम करता है तो उसे नरकादि की यातना देता है। ईश्वरफर्तृत्ववाद को असत्यता-ईश्वरकर्तृत्ववादियों का यह सब उपर्युक्त कथन विचारशून्य और युक्तिशून्य है तथा असत्यता से पूर्ण है । प्रथम तो यह कहना प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु आदि के भिन्न-मिन्न जाति के परमाणु अपने-अपने सजातीय कार्य को ही उत्पन्न करते हैं। यानी पृथ्वी के परमाणु पर्वत आदि पार्थिव पदार्थों को ही उत्पन्न करते हैं, जल के परमाणु नदी आदि जलीय पदार्थ को तथा अग्नि के परमाणु दिखाई देने वाली उष्णतागुणविशिष्ट अग्नि को ही पैदा करते हैं; इतर को नहीं। क्योंकि इस कथन के विपरीत कार्य-सांकर्य प्रत्यक्ष दिखाई देता है। जैसे चन्द्रकान्त मणि
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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