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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद - आश्रव १=३ प्रायः अनुमान के आधार पर चलते हैं । अनुमान कई दफा गलत हो जाता है और ऐसे लोग जो अटकलबाजी से किसी के बारे में कहते हैं, प्रायः उनके वचन असत्य ही साबित होते हैं । इसलिए उनके वचनों में असत्य का अंश होने से उन्हें असत्यवादी की कोटि में गिनाया है । लहुस्सगा - जिनकी आत्माएँ तुच्छ होती हैं, जिनके निम्नतम संस्कार होते हैं, वे तो बात-बात में झूठ बोलने में हिचकते नहीं अथवा असत्य व्यवहार करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता । इसलिए लघुस्वक भी असत्यवादी की कोटि में बताए गये हैं । असच्चट्ठावणाहिचित्ता — जिनका चित्त सदा असत्य बातों की स्थापना में, असत्य बातों को लोगों के दिलंदिमाग में ठसाने की उधेड़बुन में ही दत्तचित्त रहता है; उनके असत्यप्रचारी होने में तो कोई संदेह नहीं है । उच्चछंदा — अपने को बड़ा मानने वाले लोग भी महानता और उच्चता के गुण स्वयं में न होते हुए भी उनका दिखावा करने के लिए वागाडम्बर करते हैं ; . व्यवस्थित भाषा में बड़े-बड़े लच्छेदार भाषण झाड़ते हैं, परन्तु जीवन में चरित्रशीलता या सदाचार नहीं होता, ऐसे स्वच्छन्दी लोग आडम्बर की ओट में वाणी के माध्यम से लोगों पर अपना सिक्का जमाने का प्रयत्न करते हैं । परन्तु अन्त में तो सत्य प्रगट हो कर ही रहता है । इसलिए ऐसे उच्चछंद लोग भी असत्याचारी की कोटि में हैं । अणिग्गहा- जो किसी के अनुशासन या निग्रह (अंकुश ) में नहीं चलना चाहते, वे स्वच्छन्दाचारी अपने जीवन को मनमाने ढंग से बिताते हैं; वे सच बोलेंगे या असत्य बोलेंगे, इसकी किसी को कोई प्रतीति नहीं होती । इसलिए अनिग्रह (निरंकुश ) लोग भी असत्यवादियों में ही शुमार हैं । अणियता - जिनके जीवन में कोई नियमनिष्ठा नहीं होती, जो अव्यवस्थित जीवन जीते हैं; उनके जीवन में सत्य तो होता ही नहीं, असत्य से ही उनका रात-दिन वास्ता पड़ता है | इसलिए ये भी असत्यवादी हैं । छंदेण मुक्कवाया - जिनकी जबान पर कोई लगाम नहीं है, जो मनमानी बातें करते हैं, हम ही सिद्धवादी हैं, इस तरह की बेसिरपैर की बातें करने वाले लोगों के असत्यभाषी होने में कोई शक नहीं । अलियाहि अविरया - जो असत्यभाषण से, सूक्ष्म या स्थूल रूप से, सर्वांशतः या अल्पांशतः विरत नहीं हैं, वे तो असत्यवादी की ही कोटि में गिने जायेंगे, चाहे वे कभी सत्य ही बोलें । नास्तिकवादी असत्यभाषी दार्शनिक – नास्तिकवादी असत्यभाषी वे हैं, जो असत्यदर्शन की प्ररूपणा करते हैं, संसार को गुमराह करने के लिए सभी लोकहितकारी बातों का निषेध करते हैं । प्रत्यक्ष दृश्यमान जगत् का भी स्वरूप विपरीत
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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