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केवल विश्वजनीन स्वपरहितकर भावों का प्रवचन करते हैं, शास्त्र या ग्रन्थ रूप में कोई रचना नहीं करते । तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट भावों को ग्रहण कर गणधर उन्हें आचारांग आदि शास्त्रों का रूप देते हैं । अतः गणधर ही वस्तुतः अंगशास्त्रों के रचयिता हैं । अंगोत्तर साहित्य, जिसे अंगबाह्य कहा जाता है, उसकी रचना यथावसर एवं यथा प्रसंग उत्तरकालीन श्रुतधर आचार्य करते हैं ।
प्राचीन प्रश्न व्याकरण का सम्बन्ध भले ही गणधरों से जोड़ा जा सकता है । परन्तु वर्तमान प्रश्न व्याकरण सूत्र, जो स्पष्टतः ही पश्चात्कालीन रचना है, उसका रचनाकार के रूप में गणधरों से कैसे सम्बन्ध हो सकता है ? फिर भी शास्त्र के प्रारम्भ में ही आर्य जम्बू को सम्बोधित किया गया है, अतः टीकाकारों ने प्रश्न व्याकरण का उनके साक्षात् गुरु गणधर सुधर्मा से सम्बन्ध जोड़ दिया है । 3६ आचार्य अभय देव ने अपनी टीका में, पुस्तकांतर से प्रश्न व्याकरण का जो उपोद्घात दिया है, उसमें उपोद्घातकार ने प्रवक्ता के रूप में सुधर्मा गणधर का ही उल्लेख किया है । परन्तु सूत्र की शैली, जटिल प्राकृत भाषा तथा सुधर्मा स्वामी के बाद का काल - ये सब स्पष्टतः निषेध करते हैं कि प्रस्तुत रचना सुधर्मा स्वामी की नहीं है, अपितु पश्चाद्भावी किसी अन्य स्थविर की है । सुधर्मा और जम्बू के संवादरूप में पुरातन शैली का अनुकरणमात्र किया है रचनाकार आज्ञातनामा स्थविर ने अब रहा प्रश्न विषय का । आश्रव और संवर ही हेय एवं उपादेय के रूप में जैनसाधना के केन्द्र बिन्दु हैं, जो भावतः तीर्थंकर द्वारा प्रतिपाद्य होने के नाते परंपरा से आ ही रहे हैं, इसमें दो मत नहीं हैं ।
श्रुतस्कन्ध एक या दो ?
प्रस्तुत प्रश्न व्याकरण के दश अध्ययन हैं । दश अध्ययनों का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है। एक प्रकार तो वर्तमान में प्रचलित है, जहाँ प्रश्नव्याकरण सूत्र का एक ही श्रुतस्कन्ध माना गया है, और उसके दश अध्ययन बताए हैं । प्रस्तु सूत्र के उपसंहारवचन में स्पष्ट कहा है- पण्हावागरणे णं एगो सुयक्खंधो दस अयणा | नन्दी और समवायांग सूत्र में भी प्रश्न व्याकरण का एक ही श्रुतस्कन्ध मान्य है ।
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- पञ्चमगणनायकः श्री सुधर्मास्वामी सूत्रतो जम्बूस्वामिन प्रति प्रणयनं fant : सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादनपरां 'जम्बू' इत्यामंत्रणपदपूर्वा 'इणम' इत्यादिगायामाह ।
अभयदेवीयावृत्ति
- प्रश्नव्याकरण,