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( १८ ) इस का समाधान करते हुए वृत्तिकार आचार्य अभय देव कहते हैं कि वर्तमान समय का कोई अनधिकारी व्यक्ति सूत्रप्रतिपादित चमत्कारी विद्याओं का दुरुपयोग न करे, इस दृष्टि से उत्तर काल में गीतार्थ आचार्यों ने इस प्रकार की सब विद्याएँ प्रश्न व्याकरण सूत्र में से निकाल दी और उनके स्थान में केवल आश्रव तथा संवर का समावेश कर दिया गया ।33 प्रस्तुत प्रश्न व्याकरण के दूसरे टीकाकार आचार्य ज्ञानविमल भी ऐसा ही उल्लेख करते हैं ।३४ परन्तु यह समाधान वस्तुतः कुछ अर्थ रखता है क्या ? प्रश्न है कि वीतराग तीर्थंकर देवों ने पहले तो ऐसे विषय का निरूपण ही क्यों किया, जिसको वाद में हेयत्वेन निकालना पड़ा । दूसरे किसी प्राचीन ग्रन्थ के मूल विषय को निकालकर उसके स्थान में नवीन विषय डाल देने का उत्तरवर्ती आचार्यों को क्या अधिकार था ? इससे तो प्राचीन शास्त्रों की प्रामाणिकता ही सन्देहकोटि में आजाती है। यदि पहले के कुछ आचार्यों को यह अधिकार प्राप्त था, तो क्या वर्तमान में भी किसी को ऐसा कोई अन्य परिवर्तन करने का अधिकार हो सकता है ?
रचयिता कौन? अंग सहित्य का निरूपण अर्थरूप में तीर्थकर अर्हन्त करते हैं। गणधर उसी अर्थरूप भाव को सूत्ररूप में शब्दबद्ध करते है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि तीर्थंकर
३३–प्रश्नानां विद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा दशा
दशाध्ययनप्रतिबद्धाः ग्रन्थपद्धतय इति प्रश्नव्याकरणदशाः । अयं च व्युत्पत्त्यर्थोंऽस्य पूर्वकालेऽभूत् । इदानीं त्वाश्रवपञ्चक-संवरपञ्चकव्याकृतेरेवेहोपलभ्यते, अतिशयानां पूर्वाचार्यरैदंयुगीनानामपुष्टालम्बनप्रतिविपुरुषापेक्षयोतारितत्वादिति ।
–प्रश्नव्याकरणवृत्ति, प्रारम्भ ३४--प्रश्नाः अङ्ग ष्ठादि प्रश्नविद्यास्ता व्याक्रियन्ते अभिधीयन्ते अस्मिन्निति प्रश्न
व्याकरणम् एतादृशं अगं पूर्वकालेऽभूत् । इदानीं तु आथव-संवरपञ्चकव्याकृतिरेव लभ्यते । पूर्वाचार्यरैदंयुगीनपुरुषाणां तथाविधहीनहीनतरपाण्डित्यबल-बुद्धिवीर्यापेक्षया पुष्टालम्बनमुद्दिश्य प्रश्नादिविद्यास्थाने पञ्चाश्रव-संवररूपं समुत्तारितम् ।
—प्रश्नव्याकरण टीका, प्रारंभ ३५-(क) अत्थं भासइ अरहा, सुत्त गुथंति गणहरा निउण। सासणस्स हियट्ठाए. तओ सुत्त पवत्तइ ॥..
—आवश्यक नियुक्ति, गा० १६२ (ख) भावसुदस्स अत्थपदाण च तित्थयरो कत्ता ।"व०वसुवस्स गोदमो कत्ता।
-धवला, भाग १ पृ. ६५