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________________ द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव १७३ दत्तचित्त, अपने आपको सर्वोत्कृष्ट मानने वाले स्वछन्दाचारी, किसी के अनुशासन में न चलने वाले, नियमनिष्ठा से रहित, अस्थिर, अव्यवस्थित, मनमाना बकने वाले या अपने को ही सिद्धवादी कहने वाले मनचले, ये सब असत्य बोलने से अविरतजन पूर्वोक्त असत्य बोलते हैं। लोक के स्वरूप को विपरीत कहने वाले दूसरे नास्तिकवादी कहते हैं -यह जगत् शून्य है, जीव (आत्मा) नहीं है। वह इस भव-मनुष्यभव में, अथवा देवादि परभव में नहीं जाता, और न किञ्चित् पुण्य-पाप का ही स्पर्श करता है । पुण्य और पाप का सुख और दुःख-रूप फल भी नहीं है। पांच महाभूतों से बना हुआ यह शरीर है, जो प्राणवायु के योग से सब क्रियाएं करता है । कुछ लोगों की यह मान्यता है कि श्वासोच्छ्वास की हवा ही जीव है । बौद्धों का यह कहना है कि आत्मा रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पंचस्कन्धरूप है। कई मन को ही जीव (आत्मा) मानने वाले पांच स्कन्धों के अलावा एक मन को जीव ठहराते हैं। तथा ऐसा कहते हैं कि यह शरीर सादि और सान्त (नश्वर) है। इसी एक ही पर्यायरूप एक भव (जन्म) में अनेक कारणों से उसका नाश हो जाता है। शरीर का नाश होने पर आत्मा का भी सर्वनाश हो जाता है, इस प्रकार मृषावादी कहते हैं। शरीर सादि, सान्त है, इसलिए दान, व्रताचरण, पौषध तथा तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि कल्याणकारी कार्यों का फल भी नहीं है । प्राणवध (हिंसा) और असत्यवचन भी अशुभफलदायक नहीं हैं। चोरी अथवा परस्त्रीगमन भी अशुभफल के हेतु नहीं हैं। परिग्रह और इसके अतिरिक्त जो भी पापकर्म हैं, वे भी कुछ भी नहीं हैं, अर्थात् जरा भी सुख-दुःख के हेतु नहीं हैं । नारकों, तिर्यंचों और मनुष्यों की योनियां नहीं हैं और न देवलोक ही है । तथा सिद्धगति (मुक्ति) भी नहीं है। माता-पिता नहीं हैं। पुरुषार्थ भी कोई चीज नहीं है, प्रत्याख्यान-त्याग भी नहीं है, भूत, भविष्य और वर्तमानकाल नहीं है और न मृत्यु ही है। अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव (नारायण) इस संसार में कोई नहीं है। कोई ऋषि-मुनि भी नहीं हैं। धर्म-अधर्म का फल भी थोड़ा या बहुत कुछ भी नहीं है इसलिए पूर्वोक्त प्रकार से वस्तुस्वरूप को जान कर अपनी इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में खूब डट कर मनचाही प्रवृत्ति करो। कोई भी शुभ क्रियाएँ या निन्द्य अक्रियाएं
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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