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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र १६८ दूसरे के धन पर (गढियगिद्धा ) गिद्ध की तरह दृष्टि गाए हुए अथवा गड़ाढ गृद्धआसक्त हुए वे (निक्खेवे ) धरोहर को (अवहरति ) हड़प लेते हैं, (य) और (परं) दूसरे को (असंतहि ) अविद्यमान दोषों से, ( अभिजु जंति) झूठा अभियोग - आरोप लगा कर दूषित करते हैं । (य) और (लुद्धा ) लोभी मनुष्य ' ( कूडसक्खित्तणं ) झूठी गवाही देने का काम (करेंति) करते हैं (च) और (असच्चा) असत्यवादी (अत्थालियं ) धन के लिए झूठ (च) तथा (कन्नालियं) कन्या के लिए असत्य, (च) तथा ( भोमालियं) भूमि के लिए असत्य (तह य ) और वैसे ही ( गवालियं ) गौ आदि पशुओं के निमित्त असत्य, इस तरह का ( अहरगति गयणं) नीचगति में पहुँचाने वाला (गरुअं) बड़ा झूठ ( भांति ) वोलते हैं । (य) तथा ( अलियाहिसंधिनिविट्ठा) मिथ्या षड्यंत्र रचने में दत्तचित्त (असंतगुणुदीरका) असद्गुणों को उत्तेजन देने वाले (य) और (संतगुणनासका) सद्गुणों के नाशक, (अणभिगयपुन्नपावा) पुण्य और पाप के स्वरूप से अज्ञात, ( अलिय संपत्ता) असत्य में जुटे हुए लोग ( अन्नं पि) और भी ( जातिकुलरूवसीलपच्चयं ) जाति, कुल, रूप, और शील से सम्बन्धित, ( मायानिगुणं) माया के कारण गुणहीन अथवा ( मायानिपुणं, माया से निपुण, (चवल पिसुणं) चंचलता से युक्त और पैशुन्यरूप, ( परमट्ठभेदकं ) परमार्थनाशक, ( असंतकं ) असत्य अर्थ वाले अथवा सत्वहीन, (विद्द सं ) द्वेषरूप — अप्रिय, ( अनत्थकारकं ) अनर्थकारी, (पावकम्ममूलं ) पापकर्म के मूल, (दुदिट्ठ) मिथ्यादर्शनयुक्त (दुस्सुयं ) कानों को सुनने में अप्रिय, ( अमुणियं) सम्यग्ज्ञान से रहित, (निल्लज्जं) लज्जाहीन, ( लोकगरहणिज्जं ) लोक में निन्द्य, ( वधबंधपरिकि लेसबहुलं) वध, बंधन और संक्लेश - संताप से परिपूर्ण, ( जरामरणदुक्खसोयनिम्मं) बुढ़ापा, मृत्यु, दुःख और शोक के मूल कारण (असुद्ध - परिणाम संकिलिट्ठ) अशुद्ध परिणामों के कारण संक्लेशदायी, (हिंसाभूतोवघातियं) हिंसा द्वारा प्राणियों के घात से युक्त, ( अकुसलं ) अशुभ और अनिष्ट, ( साहुगरहणिज्जं ) साधुओं द्वारा निन्दनीय, (अधम्मजणणं) अधमं के जनक, ( सावज्जं ) पापयुक्त ( वयणं) असत्यवचन को (भणंति) बोलते हैं। (पुणो य) और पुनः (अधिकरणकिरियापवत्तका) शस्त्रों को बनाने और उनके जोड़ने या जुटाने के रूप में अधिकरणक्रिया में प्रवृत्त रहने वाले लोग, (बहुविहं) अनेक प्रकार के ( अणत्थं) अनर्थ का कारण, जो (अप्पणो ) अपने (य) और (परस्स) दूसरे का ( अवमद्द) उपमर्दन - विनाश ( करेंति) करते हैं । (एमेव) ऐसे ही अज्ञानपूर्वक ( जंपमाणा) बोलते हुए मूर्ख लोग, ( घायगाणं) घात करने वाले मनुष्यों - कसाइयों को (महिसे) भैंसों (य) और ( सूकरे ) सूअरों के सम्बन्ध में (साहिति) प्रतिपादन करते हैं— बतलाते हैं, (य) तथा ( वागुराणं) हिरण आदि जानवरों को फंदे में फंसाने वाले पारधियों को (ससयपसयरोहिए) खरगोश, प्रशय और रोहित नामक जंगली पशुओं को (साहिति) बतलाते हैं। (य) तथा (साउणीणं) बा आदि द्वारा पक्षियों का शिकार करने वाले बहेलियों को ( तित्तिरवट्टकलावके )
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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