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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
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किंकर्तव्य विमूढ़ होकर जीवन से ऊब कर कभी आक्रन्दन करते हैं,कभी नीचे गिरते हैं, कभी चक्कर लगाते हैं, कभी ऊपर को उछलते हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं
“उक्कोसंता य उप्पयंता निपतंता भमंता।" नारकों में से जिसके शरीर की जितनी ऊँचाई होती है, वह उतना ही ऊँचा उछल सकता है। जैसे सातवीं नरकभूमि के नारकों के शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई ५०० धनुष है, छठी की २५० धनुष है, पांचवीं की १२५ धनुष, चौथी को ६२॥, तीसरी की ३१। धनुष, दूसरी की १५॥ धनुष अर्थात् १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल और पहली की ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल ऊँचाई है, तो वह नारक उतना ही ऊँचा उछल सकता है, जितनी ऊँचाई की उसकी नरकभूमि की सीमा हो।
नारकों की इन सब प्रतिक्रियाओं का वर्णन शास्त्रकार ने स्वयमेव मूलपाठ में किया है।
सब हिंसा के बुरे नतीजे हैं, जिनके कारण नरकगति में पैदा होकर नाना प्रकार की यातनाएं बहुत दीर्घकाल तक भोगनी पड़ती हैं। यह सब बनाकर शास्त्रकार ने हिंसा से बचने की प्रेरणा परोक्षरूप से दे दी है।
__ तिर्यंचगति और मनुष्यगति में हिंसा के कुफल नरकगति में हिंसा के कुफलों का वर्णन पूर्वोक्त सूत्रपाठ में करने के बाद अब शास्त्रकार तिर्यञ्च गति और मनुष्यगति में कुफलस्वरूप क्या-क्या यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, इसका निरूपण करते हैं
मूलपाठ पुवकम्मोदयोवगता पच्छाणुसएण डज्झमाणा णिदंता पुरेकडाइं कम्माइं पावगाइ तहिं तहिं तारिसाणि ओसण्णचिक्कणाई दुक्खाइ अणुभवित्ता, तत्तो य आउक्खएण उन्बट्टिया समाणा बहवे गच्छति तिरियवसहिं दुक्खुत्तारं सुदारुणं जम्मणमरणजरावाहिपरियट्टणारहट्ट जल-थल-खहचरपरोप्परविहिंसणपवंचं, इमं च जगपागडं वरागा दुक्खं पावेंति दीहकालं । किं ते ? सीउण्ह-तण्हा-खुह-वेयणअप्पईकार-अडविजम्मण-णिच्चभउविग्गवास-जग्गण-वह-बंधण-ताडणंकण-निवायण-अट्ठिभंजण-नासा. भेय-प्पहारदूमण-छविच्छेयण - अभिओगपावण - कसंकुसारनिवायदमणाणि, वाहणाणि य, मायापितिविप्पयोग-सोयपरिपीलणाणि य, सत्थग्गि-विसाभिघाय-गलगवलावणमारणाणि य, गलजालु