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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
जीवों का प्राणान्त नहीं होता। इसलिए एक ही बार मरणान्त कष्ट पाकर भी उनके प्राणों का अन्त नहीं होता ; इसलिए बारबार वे अपनी जिन्दगी में ऐसे मरणान्तक कष्ट पाते रहते हैं।
क्षेत्रकृत दुःख–नारकों को नरक में नरकपालों के निमित्त से, परस्पर नारकों के निमित्त से, तो भयंकर शारीरिक एवं मानसिक दुःख होता ही है, परन्तु क्षेत्रकृत दुःख भी कम नहीं है। ऐसा तो होता नहीं कि नरकायु का बंध होने पर उसे नरक का क्षेत्र न मिले । वह तो अवश्यम्भावी है। जीवों की हिंसा करने वाले प्राणी को रौद्रध्यान के कारण नरकायु का बंध होता है। जिसके कारण उसे नरक का महादु:खद क्षेत्र मिलता है। उस क्षेत्र से निकल कर वह बाहर कहीं नहीं जा सकता । अपनी जिन्दगी की लम्बी अवधि बिताने के बाद ही नारकी उस क्षेत्र से छुटकारा पा सकता है।
नरक के क्षेत्र की भयंकरता का इस सूत्रपाठ से पहले के सूत्रपाठ में स्पष्ट वर्णन किया जा चुका है। फिर भी उस क्षेत्र की दुःखदता को वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की दृष्टि से तथा दृश्य, श्रव्य, स्पृश्य, स्वाद्य, और नस्य की दृष्टि से टटोलें तो हमें स्पष्ट आभास हो जायगा । नरक की भूमि का रूप बड़ा ही भौंडा, भद्दा और विकृत है । वहाँ कोई सुन्दरता, रमणीयता या मनोहारिता नहीं है। कोई बाग बगीचे वहाँ नहीं, कोई व्यवस्थित मकान नहीं, न कोई वहाँ प्रकाश है या सून्दर रंग बिरंगी चीजें ही हैं, जिन्हें देखकर आँखों को शान्ति या सुख मिले । नरकभूमि का दृश्य अत्यन्त भद्दा है। यहाँ ऊबड़खाबड़, भयंकर भूमि है। कोई दरवाजे नहीं, सर्वत्र अंधेरा ही अंधेरा है, काला ही काला । अपने महापाप को द्योतित करने वाला यह रंग है। यहाँ के रस का तो पूछना ही क्या ? हालाहल विष से भी अधिक बुरा रस यहाँ होता है । कोई भी स्वादिष्ट मीठी या चरपरी वस्तु यहाँ नहीं होती,जिसे चख कर जीभ को तृप्त किया जा सके। स्वाद्य वस्तु तो यहाँ कोई है ही नहीं । सभी वस्तुएं नीरस और अत्यन्त खराब होती हैं । शब्द तो नारकभूमि में सदा कर्णकटु ही सुनने को मिलते हैं। नारकों की चीखों, पुकारों से तथा चिल्लाहट,रोने, हाहाकार मचान,गला फाड़कर रोने के शोर से और इसकी प्रतिध्वनि एवं नरकपालों के भयंकर कर्कश शब्द से नरक हर समय भरा रहता है । नरक में कोमल, मधुर, प्रिय, मनोहर, आदरजनक, संगीतमय शब्दों का काम ही क्या ?
यहाँ की भूमि का स्पर्श हजारों-हजार बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने पर जितना दुःखद होता है, उससे भी अधिक दुःखप्रद है । असिपत्र, वैतरणी नदी, रेत आदि का स्पर्श तीक्ष्ण,गर्म और अत्यन्त खुरदरा है । कोमल और गुदगुदा स्पर्श तो यहाँ किसी भी चीज का नहीं है । दीवारें हैं तो बिलकुल कठोर वज्रमयी, नीचे का भूमितल