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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ८२ ढोकर मनुष्य जाति की कीमती सेवा करते हैं, जीते जी भी अपने शरीर से कितनी ही चीजें देते हैं, मरने के बाद भी चमड़ा, हड्डी आदि देकर मानवजाति के लिए उपकारी बनते हैं | उनसे इस बहुमूल्य सेवा लेने के बदले मनुष्य को उनका कृतज्ञ होना चाहिए, उनकी रक्षा करनी चाहिए, उसके बजाय उनका वध करना कितनी कृतघ्नता और नीचता है । कितना विश्वासघात है। पक्षीगण सड़ी गली चीजों को खाकर वायुशुद्धि करते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते । उन निःस्वार्थ सेवा करने वाले पक्षियों को मार डालना कितना अन्याय है । मनुष्य जाति की तरह वे भी सृष्टि के अलंकार हैं । इसलिए पशुजाति के उपकारों के बदले में अपनी अधम लालसा को पूर्ण करने के लिए उनके प्राणों का संहार करना उचित नहीं । यह अनधिकार चेष्टा है । वस्तुओं का सेवन करने वाले या उन अनार्यों के पड़ौस । * इसलिए पूर्वोक्त तीनों कोटि के हिंसकों का इस मूलपाठ में स्पष्टतया उल्लेख करके परोक्ष रूप से यह भी ध्वनित किया है कि ऐसे म्लेच्छ जातीय अनार्य जनों दुःसंग से भी दूर रहना चाहिए । तात्पर्य यह है कि जो अनार्यप्रधान देश हैं, जहाँ के अधिकांश लोग हिंसक हैं, बर्बर हैं, मांसादि हेय हैं, धर्म-अधर्म के विवेक से शून्य हैं, उन देशों में में आत्महितैषियों व धर्मात्मा पुरुषों का रहना उचित नहीं क्योंकि वहां के गंदे वातावरण का असर प्रायः उनकी आत्मा पर भी हो सकता है । कईबार उन धर्मात्मा और अहिंसक लोगों को भी उस देश में या अनार्यों के पड़ौस में रहने के कारण परोक्षरूप से अनुमोदन का भागी बनना पड़ता है, अथवा उनकी कोमलमति संतान पर भी उनके दुष्कृत्यों के कुसंस्कार पड़ सकते हैं । संगति का प्रभाव बड़ा बलवान होता है । धुरंधर विद्वानों और घोर तपस्या करने वालों पर भी अकस्मात् उन निमित्तों या दुःसंगों का असर होता और उनका पतन होता देखा गया है। एक बार जहाँ उन हिंसादि दुष्कृत्यों का चेप लगा कि फिर वह क्रम आगे से आगे चलता जाता है । उसका संभलना मुस्किल हो जाता है । जैसे पर्वत से नीचे फिसलने वाला मनुष्य नीचे से नीचे लुढकता - गिरता चला जाता है, वैसे ही एक दिन जो अहिंसक था, वह भी पतित होता चला जाता है और पक्का हिंसक बन जाता है । हिंसा का भयंकर दुष्परिणाम - इसीलिए शास्त्रकार ने मूलपाठ में इस भयंकर हिंसा से बचने और दूसरों को बचाने के हेतु हिंसा के भयंकर कुफल बताये हैं, जो प्रत्येक हिंसाकर्त्ता को भोगने ही पड़ेंगे। उसमें कोई रूरियाअत नहीं होगी, चाहे फिर हिंसा करने वाला मनुष्य किसी भी उच्चकुल, उच्चजाति, उच्चधर्म, उच्चराष्ट्र या प्रान्त का ही क्यों न हो । जहर को कोई भी कुलीन व्यक्ति खाए या अकुलीन, जान कर खाए या अजाने में, उसका दुष्परिणाम मृत्यु के रूप में उसे
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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