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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा - आश्रव ५७ बताई हुईक्रिया के हेतु स्वाधीन होकर या पराधीन होकर, प्रयोजन से या निष्प्रयोजन त्रसजीवों और स्थावर जीवों की हिंसा करते हैं । कई मंदमति अज्ञजन इन्हें स्वाधीन होकर मारते हैं, कई पराधीन होकर मारते हैं, कई स्वाधीन और पराधीन होकर दोनों तरह से मारते हैं, कई प्रयोजनवश मारते हैं, कई बिना ही प्रयोजन के मारते हैं, कई प्रयोजन और निष्प्रयोजन दोनों तरह से मारते हैं, कई हास्यवश मारते हैं, कई वैर (अदावत) के कारण मारते हैं, कई भोगों में रति ( आसक्ति) के कारण मारते हैं, कई हंसी, वैर और रति तीनों कारणों से मारते हैं, कई क्रुद्ध होकर मारते हैं, कई लुब्ध (आसक्त ) होकर मारते हैं, कई मुग्ध (फिदा ) होकर मारते हैं, कई क्रुद्ध, लुब्ध और मुग्ध होकर मारते हैं, कई अर्थ के निमित्त से मारते हैं, कई धर्म के नाम पर मारते हैं, कई कामभोग के लिए मारते हैं, कई अर्थ, धर्म और काम तीनों के निमित्त से मारते हैं । व्याख्या तीन बातें - प्रस्तुत सूत्रपाठ में मुख्यतया तीन बातों पर प्रकाश डाला गया है— (१) हिंसक जीवों के स्वभाव पर, (२) जिन जीवों की हिंसा की जाती है, उनके नामोल्लेख पर, (३) हिंसा के कारण, प्रयोजन या निमित्त पर । हिंसक जीवों का स्वभाव - हिंसाकर्त्ता जीवों के स्वभाव का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि इस लोक और परलोक में भेद-प्रभेदयुक्त भयंकर हिंसा में वे ही प्रवृत्त होते हैं, पापकर्म के उदय से रातदिन पाप में ही मग्न मन के ही गुलाम हैं, जिन्हें संयम ( नियंत्रण ) की कोई चीज नहीं सुहाती, पापकार्यों से विरत न होने के कारण जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, त्याग, तप, सुध्यान, भावना आदि से कोसों दूर रहते हैं, जिनके मन में कभी शान्त परिणाम नहीं आते और उन अशान्त परिणामों के कारण जिनके मन, वचन और काया दुष्प्रवृत्तियों में बेरोकटोक भटकते रहते हैं, इस कारण जो सदा अज्ञान, मोह और प्रमाद में ग्रस्त रहते हैं । सर्वत्र दुःख देने वाली, अनेक जिनकी आत्मा पापानुबन्धी रहती है; जो केवल इन्द्रियों और नाम हिंसा किए जाने वाले जीव - - शास्त्रकार ने पञ्चेन्द्रिय से लेकर क्रमश: केन्द्रिय तक के जीवों का नामोल्लेख करके स्पष्ट समझा दिया है | पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चजीवों में स्थलचर ( चतुष्पद, चौपाये ), उरः परिसर्प और भुजपरिसर्प, जलचरमत्स्य आदि और खेचर-पक्षियों के क्रमशः नाम खोल कर तथा चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वन्द्र, एवं पृथ्वीका आदि स्थावर जीवों का सामान्यतया उल्लेख करके यह बता दिया है कि कोई भी व्यक्ति इस भ्रम में न रहे कि हम पञ्चेन्द्रियों और उनमें भी मनुष्यों को ही इस संसार में जीने का अधिकार है । मनुष्य के सिवाय अन्य सब
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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